मेरे खत का ज़बाब आया है
हां उसने मुझे बुलाया है,
कल मेरे खत का जबाब आया है।
याद नहीं दिन, महीने, बरस,
कब भेजा था उसे मैंने एक खत।
इतना याद है ज़रूर तब आँखों पर नहीं चढ़ा था चश्मा,
देख सकती थी मैं नंगी आखों से रंगीन सपना।
वह दिन कहता तो मैं दिन और वह रात कहता तो कहती मैं रात,
कड़वी बातें भुला देती थी, मानकर उसे अपना।
उसकी हंसी और ज़रा सी ख़ुशी पर मैं,
आपना सब कुछ लुटाने को तैयार थी,
कही-अनकही बातें जानकर भी,
झुठलाने को तैयार थी।
अपनी खुशियों की नींव पर मैंने,
उसके सुखों का घरौंदा बनाया था,
इंसान बनाने के लिए इंसानियत का पाठ पढ़ाया था,
आदर-प्यार आदि संस्कारों को घुट्टी में मिलाकर पिलाया था।
उसने भी मुझे विश्वास दिलाया था,
जाकर विदेश केवल और केवल इंसान बनकर वापस आएगा,
मेरे हसींन सपनों को और रंगीन बनाएगा।
फिर ना वह आया ना ही उसका कोई खत,
दिन महीने बीत रहे थे बरस पर बरस।
पर मुझे यकीन था वह आएगा,
न कभी ठेस पहुंचाई थी ना ही पहुचायेगा।
मेरे संस्कारों की बेड़ियों से वह बंधा था,
राम-कृष्ण अशोक जैसे पूर्वजों का जना था।
कल मेरे खत का जबाब आया है,
हां उसने मुझे बुलाया है।
माँ को अपने सिर आँखों पर बैठाने के लिए,
आदर-मान और सब सुख संपन्न कराने के लिए,
जो ना मिला कभी चरणों में लुटाने के लिए,
आतुर है वह मुझे बुलाने के लिए।
बेटा मैंने खत लिखा था तुम्हें बुलाने के लिए,
काश! तुम स्वयं आते मुझे मनाने के लिए,
तुम्हारी एक झलक काफी होती बरसों का गम भुलाने के लिए।
इस लम्बे अंतराल ने मुझे बहुत कुछ सिखाया है,
घड़ी की सुइयों ने घूम-घूम कर समझाया है,
कि समय बड़ा ही बेशरम सरमाया है।
वहाँ तेरे पास सम्पदा ही सम्पदा है,
यहाँ मेरे पास समय की पूंजी है,
तू अपनी सम्पदा में खुश रह,
मुझे अपनी पूंजी सहेजने दे,
क्योंकि उसमें तेरी यादें, तेरी बातें, तेरी शिकायतें,
और तू ही तू समाया है।।
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सुधा गोयल 'नवीन'
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