जल-प्रलय
फटा बादल, टूटा कहर
जलमग्न हो गया सारा शहर ,
गाँव, कस्बा, डगर, डगर…
कटते-कटते पेड़, जंगल मैदान हुए,
बंधते बंधते नदियों ने खो दी रवानगी,
गगनचुम्बी अट्टालिकाओं के बोझ से,
टूटी कमर गिरने लगे पहाड़ भी…
अलकनंदा ने तोडी सीमाएँ
बहने लगी वह दायें बाएं,
छटपटाहट बढ़ रही शामो-सहर,
भागीरथी बेचैन है आठों पहर….
आक्रोश है मन में, याकि पीड़ा ,
कलुष धो डालने का, उठाया है बीडा,
उफनती, पटकती करे हाहाकार,
आमूल-समूल उखाड़ फ़ेकेगी,
द्रौपदी के चीर सा व्यभिचार।
देवियों पर देख होता अत्याचार,
देव दहले, बद्रीनाथ हों या केदार,
प्रकृति के साथ भी हो रहा खिलवाड़,
बहने लगे अबाध अश्रु, जार-जार …
आज जैसे प्रभु भी है लाचार…
प्रभु भी है लाचार…
सुधा गोयल ‘‘नवीन”