Wednesday 6 January 2016

निर्भया Poem



निर्भया
हार गई निर्भया,
जीत गया दोषी, निर्भया का ।
साबित हो गया एक बार फिर,
क़ानून अँधा है अंधा ही रहेगा।
शायद वह बहरा भी हो चुका है,
निर्भया की चीखें, माँ का आर्तनाद,
पिता की दलीलें, मीडिया का शोर,
गुम हो गए, बेअसर हो गए।
हार गई निर्भया,
जीत गया दोषी, निर्भया का ।
हाय री विडंबना।
अपराध बड़ा है तो उम्र भी बड़ी होनी चाहिए,
उम्र छोटी है तो बड़ा अपराध भी,
छोटा ही गिना जाना चाहिए।
फिर कोई क्यों न करें बड़े अपराध,
सहारा लेकर मासूम कन्धों का,
पीठ पर जब हाथ है बुत बनें अंधों का।
क्रंदन इक माँ का प्रभु सुन लीजो,
अगले जनम मोहे बिटिया न दीजो,
या फिर ऐसे देश में पैदा कीजो,
जो गूंगा बहरा अंधा न हो,
सीने में जिसके दिल भी धड़कता हो।
जहाँ पाश्विकता पर कोड़ों से प्रहार हो,
ईमान, शर्म, नैतिकता की न हार हो।
ऐ नारी अस्मिता के ठेकेदारों,
बड़े-बड़े वादों-नारों वाले देश के पहरेदारों,
करुण पुकार, दम तोड़ती सिसकी निर्भया की,
क्या सुनाई देती है आवाज़ आत्मा की,
तो फिर भगवान के लिए ऐसा कदम ना लीजो,
फिर किसी निर्भया के दोषी को,
रिहा मत कीजो।
ना हारे कोई निर्भया बार-बार,
ना सिसके कोई ज्योति,
और ना जीते कोई दोषी हर बार।।