Monday 21 August 2017

माँ आई है (कविता )

माँ आई है गाँव से मेरी माँ आई है, बड़ी मिन्नतों के बाद आई है, बगल में गठरी आषीशों की, गोंद के लड्डू में, प्यार लाई है, मुद्दतों बाद माँ आई है, गाँव से मेरी माँ आई है। सरसों जम कर फूल रही है, गेंहू की बाली....... मोटी होकर झूल गई है.... सुरसी गैया के छौना हो गया.... पूरे गाँव में दूध बंट गया....... छन्नू की अम्मा, पप्पू के पापा, और चाची, मौसी के, उपहार लाई है....... गाँव से मेरी माँ आई है। कमली के जुड़वा बेटे की, उर्मिला के भाग जाने की, शन्नो बुआ ने खटिया पकड़ी.... रामू काका के गोरू बिक गए, समाचार मज़ेदार लाई है....... गाँव से मेरी माँ आई है। बेटा खुश है, बेटी खुश है, बेटा-बेटी की माँ भी खुश है, छप्पन पकवानों की खुशबू से, दो कमरे का दबड़ा खुश है, रोज़ खिलाती अडोस-पड़ोस को, मेरी माँ से हर कोई खुश है। पढ़ता हूँ जब मैं, माँ का चेहरा, लगता पूछूं, क्या माँ भी खुश है, सौंधी रोटी, चूल्हे की छोड़, गैस भरी रोटी क्या पचती, नीम की ठंडी छाँव याद कर, रात- रातभर मेरी माँ जगती, आधी बाल्टी पानी है, माँ का हिस्सा ..... कैसे धोये,कैसे नहाए…... माँ नाखुश है....... माँ चुप है....... पर मैं और नहीं सह सकता, कल ही माँ को गाँव में उसके, खुश रहने को छोड़ आउंगा ....... मैं जाऊँगा, मिल आऊँगा........ बेटा-बेटी को मिलवा लाऊँगा....... मैं मेरी सुविधा औ, खुश होने की खातिर, माँ से उसका स्वर्ग छीन कर, खुश रहने की भूल, भूल कर भी नहीं कर सकता, अब मैं और नहीं सह सकता माँ को अपनी खुश रहने को छोड़ आउंगा, गाँव में उसके छोड़ आऊँगा।। सुधा गोयल 'नवीन' -- Sudha Goel http://sudhanavin.blogspot.com

Thursday 30 March 2017

रवीन्द्रनाथ की कविता का अनुवाद

हाँ मेरा नाम मालती है। कोई भी नहीं जान पायेगा। बंगाल में ऎसी कितनी ही मालतियाँ हैं, और वे सभी साधारण लड़कियां हैं..... उन्हें फ्रेंच या जर्मन भाषा नहीं आती... उन्हें सिर्फ रोना आता है। तुम्हीं बताओ कैसे जिताओगे उन्हें... ? माना तुम्हारी सोच महान है, तुम्हारी लेखनी उदार भी, हो सकता है तुम उसे बलिदान के रास्ते पर ले चलो, शकुन्तला की तरह, दुःख की पराकाष्ठा तक। सुनो..... मुझ पर दया करो.... मेरे स्तर तक आओ। काली अंधियारी रात में, बिस्तर में छुपकर, मैं अनगिनत देवताओं से वरदान मांगती हूँ..... पर वे मुझे नहीं मिलते, लेकिन, हो सकता है, तुम्हारी नायिका उसे पा ले। क्यों नहीं तुम नरेश कों सात सालों के लिए लन्दन में रहने देते, अनेकानेक बार परीक्षाओं में असफल हो जाने देते, और रहने देते चापलूस-खुशामदीदों के साथ, इस बीच मालती को एम्.ए. की डिग्री मिल जाती, और वह तुम्हारे कलम के बल पर, गणित में, कलकत्ता विश्विद्यालय में प्रथम उत्तीर्ण होती। लेकिन यदि तुम ऐसा करते तो...... तुम्हारी साहित्य-शिरोमणि वाली प्रसिद्धि, बुरी तरह प्रभावित होती........ रहने दो मेरी स्थिति जैसी है, वैसी ही..... अपनी कल्पना की उड़ान को प्रतिबंधित मत करो। आखिर तुम ईश्वर की तरह कंजूस भी नहीं हो। उस लड़की को योरप जाने दो, और ज्ञानी, विद्वान, दिलेर, बहादुर, कवियों, राजाओं, एवं कलाकारों के, झुण्ड को, उसके इर्द-गिर्द घूमने दो। खगोलशास्त्रियों की तरह....... खोजने दो, समझने दो....... केवल उसके पांडित्य या विद्या को नहीं, वरन एक औरत के वजूद को ....... जिसके पास दुनिया को जीतने की जादुई शक्ति है........ उस पहेली या रहस्य को उजागर होने दो, परन्तु बेवकूफों के देश में नहीं........ वरन वहाँ जहाँ कदरदान, पारखी और कला मर्मज्ञ हों। जैसे अँगरेज़, जर्मन या फ़्रांसीसी ....... अनेकानेक मिले सम्मानों के लिए क्यों न मालती का अभिनन्दन करें, और जुटाएं ढेरों प्रसिद्द हस्तियाँ। और सोचे कि प्रशंसाओं की अविराम बारिश हो रही है। [3/11, 14:34] Laksha's Southampton No: जब तक वह इन दोनों के बीच का रास्ता, बड़ी ही लापरवाही से तय करती है ---- जैसे उन्मत्त लहरों पर कोई कश्ती....... उन प्रशंसकों की फुसफुसाहटे उसकी आँखों पर टिकी हैं , सब कह रहे हैं कि उसकी सम्मोहित करने वाली आँखें, भारत के घने बादलों और प्रखर सूरज की चमक का मेल हैं। (जिस किसी से संबंधित हो, यहाँ मैं कहना चाहूंगी कि विधाता ने मुझे बेहद सुन्दर आँखें दी हैं। योरप के किसी सौन्दर्योपासक से मिलने का सौभाग्य नहीं मिला मुझे ...... इसलिए, स्वयं से कहती हूँ मैं कि विधाता ने बेहद सुदर आँखें दी हैं मुझे। नरेश को अद्वितीय सुन्दर औरतों के झुण्ड के साथ किसी कोने से अवतरित होने दो, और तब? तब मेरी कहानी अंत हो जायेगी, मेरे सपने दफ़न हो जायेंगे, आह! एक साधारण लड़की! ओह! उस सर्वशक्तिमान की शक्तियों का कितना दुखद अंत !!! आह! आह! (अनुवाद) सुधा गोयल 'नवीन'

Tuesday 28 February 2017

‘किटी - पार्टी’

‘किटी - पार्टी’ ‘‘संजू का ई. मेल आया है.’’ आदित्य की ऊँची आवाज डाइनिंग रूम के एक कोने से, जहाँ कम्पयूटर रखा था गूँजी...... ‘‘क्या लिखा है, पढ़ कर सुनाओं..........’’ अरूंधति ने किचन से ही गुहार लगाई. आवाज से उसकी खुश छलक न जाए, इसका उसने विशेष ध्यान रखा. जब भी विदेश में बसे बेटे की कोई खबर आती है अरूंधती उसे अपनी निजी सम्पत्ति की तरह छुपाना चाहती है. ‘‘हमें फिर से बुलाया है’’ एक लम्बे अंतराल के बाद आदित्य की आवाज आई. ‘‘लिखता है... पापा, अब आपको व माँ को वहाँ इंडिया में अकेले रहने की क्या जरूरत है. हमारे पास आकर रहिए. ईशा, आयशा का बचपन अपने दादा दादी की देखरेख में बीतेगा तो मैं व मिनी भी चैन से अपने काम में मन लगा सकेंगे...... सुन रही हैं आप …………। आदित्य के स्वर में उत्साह तो था, पर कटाक्ष का पुट ही अधिक था. आदित्य ने दुनिया देखी है. पूरे पैंतीस साल की नौकरी बजा कर पिछले साल ही तो रिटायर हुए हैं. दो-दो बेटों का ब्याह किया है, अनेक संस्थाओं की जिम्मेदारी सम्भाली है. लोगों की बातों का आशय वे चुटकी में भाँप लेने की कला में पूरे सिद्धस्त है, फिर संजू तो उनकी अपनी औलाद है.... आदित्य ने आगे पढ़ना शुरू किया, ‘‘लिखता है, -- यहाँ इंडिया की तरह नौकर-आया तो होते नहीं, सारा काम अपने हाथों से करना पड़ता है, उस पर से बच्चों की देखभाल के लिये जो नैनी रखी है, वह भी छुट्टियों में अपने घर चली जाती है. इसलिये हमने सोचा है कि अब आप लोग यहाँ आ जाइए. नैनी पर होने वाले बड़े खर्चे से तो आप दोनों पर होने वाला खर्च कहीं कम होगा. बच्चों को संस्कार तो आप लोग ही दे सकते हैं...... नैनी वह विदेशी औरत भला बच्चों को क्या संस्कार देगी. अगले महीने की पाँच तारीख से बच्चों की छुट्टियाँ है, उसके पहले आप लोगों को आना है, एयर टिकिट हम जल्दी ही भेज देंगे.’’ आदित्य आखिरी पंक्तियाँ सुना रहे थे कि अरूंधति छोटे तौलिये से हाथ पौंछती हुई उनके सामने आकर खड़ी हो गई. वह मुस्कुरा रही थी. अपने स्मार्ट बेटे की चालाकी भरी बातें भी उसे बहुत प्रिय हैं -- बहुत प्यार करती है वह संजू से. उस शाम अरूंधति को किटी पार्टी में जाना था, इसलिये वह घर का छोटा बड़ा सारा काम निपटा लेना चाहती थी, क्योंकि किटी पार्टी से लौटकर आओ तो कुछ काम करने का मूड ही नहीं बनता, बस वहाँ हुई तमाम बातों को आदित्य के साथ चटकारे ले लेकर दोहराने का मजा ही अलग होता है. आज अरूंधति कुछ ज्यादा ही उत्साहित थी क्योंकि उसे अपनी सहेलियों को यह ताजा खबर देनी थी कि तीन महीने के अंतराल में वे फिर से अमरीका जाने वाले हैं. उनका कमाऊ बेटा जो बहुत ऊँचे ओहदे पर है, वही उनका टिकिट भी भेजेगा. अब क्यों, क्या, कैसे, यह अन्दर की बात है..... …... किटी पार्टी का नजारा आज कुछ बदला-बदला सा था. सुरेखा, दीप्ति, माया, रूबी, अलका सभी गजधर होटल के हाॅल में जमा तो थी, लेकिन जो शोर, हँसी, किलकारी हमेशा एक दूसरे का स्वागत किया करती थी, वह लापता थी. नीना व शीला अभी तक नहीं पहुँची थीं. शीला किटी पार्टी में पहुँचने वाली सबसे पहली सदस्या हुआ करती है, फिर आज वह क्यों नहीं पहुँची.......... कहीं कोई अशुभ बात तो नहीं हो गई.... नहीं...नहीं.... कल ही तो उसने सबको अपनी नातिन की फस्र्ट बर्थ-डे पार्टी में बुलाया था. यह बात अलग है कि अरूंधति नहीं जा पाई थी, क्योंकि उसे आदित्य के साथ उनके बाॅस की बेटी की शादी में जाना था. अरूंधति ने अनुमान लगाया कि सभी कल शीला की पार्टी में गई होंगी, और आज की यह चुप, वहीं घटी किसी घटना की प्रतिक्रिया है. उसने भी चुप रहना ठीक समझा. अब उसे नीना की चिंता ने घेर लिया. कुछ ही दिनों पहले नीना का एक्सीडेंट हुआ था... पर वह तो ठीक हो गई है... क्या बात है.... वह भी अभी तक नहीं पहुँची थी. अरूंधति नीना के बारे में सोचने लगी--- नीना दो दामादों व एक बहु की सास है। आजकल वह अनाथ, अपाहिज बच्चों का एक स्कूल चलाती है, पति अधिकतर अपने फार्म हाउस पर रहते हैं- ……उनकी और नीना की सोच में जमीन आसमान का अंतर है. पति को पत्नी का अपाहिज बच्चों का स्कूल चलाना अपमान जनक लगता है. बेशुमार धन क्या उन्होंने इसलिए कमाया है कि पत्नी घर से बाहर जाकर काम करे, वह भी टका सा? अपनी नाराजगी दिखाने का उन्होंने अजीब रास्ता निकाल लिया है. फार्म हाउस पर रहते हैं और पेड़ पौधों की सेवा करते हैं. कभी-कदा नीना फार्म हाउस पर जाती है, पर उसका मन वहाँ नहीं लगता है, और वह शीघ्र लौट आती है. नीना को जितना बेमानी लगता है यहाँ बेटी दामाद के साथ रहना, उतना ही अस्वाभाविक लगता है फार्म हाउस में रहना. उसने जान लिया है कि उसकी किसी को भी जरूरत नहीं है सिवाय उन अनाथ-अपाहिज बच्चों के जिनका वह स्कूल चलाती है. नीना की बड़ी बेटी भागलपुर के किसी छोटे से गाँव में रहती है, ना ही वह कभी आती है, ना ही कभी कोई कुशल-क्षेम का पत्र-व्यवहार करती है... एक तरह से सब उसे भूल चुके है..नीना का एकलौता बेटा माँ से इसलिये नाराज रहता है कि माँ ने, फार्म हाउस उसके नाम करवाने के लिये बाप से हील हुज्जत नहीं की. उसका मानना है कि उसका बाप अपनी अथाह सम्पदा पर कुंडली मारे बैठा है, उसका सोचना है कि हर बाप अपने बेटे के लिये धन जोड़ता है, न कि स्वयं उड़ाने के लिये. इसलिये उसने भी सबसे नाता तोड़ लिया है. नीना की छोटी बेटी आर्थिक रूप से सबसे कमजोर है. वह नीना के साथ ही रहती है, लेकिन अपने पति व बच्चे की दुनिया में मग्न रहती है, ..... पिछले साल जब नीना का कार एक्सीडेंट हुआ था. तब अस्पताल ले जाने से लेकर घर आने तक, पूरी सेवा उसकी किटी पार्टी की सहेलियों ने ही की थी. कार की मरम्मत, इनश्योरेंस आदि के झंझट आदित्य ने सम्हाले थे. अरूंधति ने देखा कि नीना पिछले दरवाजे से हाॅल में दाखिल हो रही है. गुमसुम सी.... अपनी विचार श्रंखलाओं को झटक, चेहरे पर तेज और वाणी में ओज भर कर अरूंधति ने प्रश्न किया, ‘‘अरे भई सब इतने चुप क्यों हैं? और अभी तक कोल्ड ड्रिंक भी सर्व नहीं हुई है, क्या बात है?’’ सुरेखा की ओर मुखातिब होकर बोली, ‘‘सुरेखा मैडम आपकी खातिरदारी के तो इतने चर्चे हैं, फिर आज यह ढील-ढील कैसी... क्या अपनी प्रिय सखी शीला के आने के बाद ही सर्व करवाओगी?’’ सबका ध्यान अपनी ओर खींचने में अरूंधति सफल तो हो गई, परंतु न कोई उत्तर मिला, न कोई हँसा खिलखिलाया.... तभी रूबी ने अरूंधति को आँखों के इशारे से अपने पास वाली कुर्सी पर आकर बैठने को कहा. फाइन नेट पर जरदोजी के काम वाला सलवार सूट रूबी के आकर्षक व्यक्तित्व में चार चाँद लगा रहा था. उसके बच्चे अभी छोटे हैं, बेटा दसवीं में और बेटी आठवीं क्लास में पढ़ते हैं. गाने-बजाने की बात हो, या फिर नयी-नयी डिशेज बनाने की, तब रूबी खूब बढ़-बढ़ कर बोलती है, लेकिन जब बहु या दामाद पुराण चल रहा हो तो मूक श्रोता बनी रहती है. अरूंधति ने रूबी के बगल वाली कुर्सी तनिक और सटाते हुए फुसफुसी आवाज में पूछा,--‘‘क्या बात है?’’ रूबी ने प्रश्न का उत्तर प्रश्न से ही दिया, ‘‘कल तुम शीला की बेटी की पार्टी में क्यों नहीं आई थी. बुलाया तो उसने तुम्हें भी था.’’ अरूंधति की शंका शायद सच है, उस पार्टी में ही कोई बात हुई है. अरूंधति बात की गहराई तक पहुँचना चाहती थी. शीला अभी तक नहीं आई थी. उसने सोचा कि बात यदि दीप्ति, माया, अलका या सुरेखा को लेकर होती तो यहाँ का माहौल आक्रामक होना चाहिए था. बातें जोर-जोर से हो रही होती, और जो वहाँ नही होती, उसकी बुराइयों के पुराण का टीला बन चुका होता. अवश्य कोई गम्भीर बात है. अरूंधति ने अपने स्वर को और धीमा व गोपनीय बनाते हुए रूबी को उत्तर दिया,-‘‘आदित्य के एम. डी. शर्मा जी की बेटी की शादी थी, वहाँ जाना बहुत जरूरी हो गया था. आदित्य की बात टाल न सकी, इसलिये नहीं आ पाई, बता न क्या हुआ था वहाँ? रूबी ने दरवाजे की ओर देखा, बेयरा पाइनपल डिलाइट, फ्रूट पंच, व कोक लेकर आ चुका था. दोनों ने अपनी-अपनी पसन्द के ड्रिंक उठाये, बातों का सिलसिला आगे बढ़ा. रूबी ने प्रश्न का उत्तर फिर प्रश्न से किया, ‘‘अरूंधति क्या तुझे मालुम है शीला व गुप्ता जी ने बेटी को बड़ा करने में कितनी मुसीबतों का सामना किया था. शादी के दस साल बाद गीता पैदा हुई थी.... वह भी सिजीरियन.’’ अरूंधति - ‘‘हाँ-हाँ वह सब पता है मुझे, कैसे सास ससुर की आँख बचा-बचाकर उस लड़की की फरमाइशें पूरी करती थी. गुप्ता जी अब अच्छी स्थिति में पहुँचे हैं न, जब से अगरबत्ती का बिसनेस शुरू किया है, जब तक नौकरी में थे एक अच्छा सोफा भी नहीं था उनके घर.’’ रूबी ने टोका, ‘‘जो भी कहो, शीला को मानते बहुत हैं गुप्ता जी, सुगृहिणी जो है।” अरूंधति चुप न रह सकी, ‘‘उस बेचारी ने कभी अपने लिये एक अच्छी साड़ी की भी इच्छा नहीं रखी, कभी भी कुछ चाहा तो सिर्फ गीता के लिये. एक से एक कपड़े पहनाये, मँहगे स्कूल में पढ़ाया, हाॅस्टल भेजा, यू. के. से बिसनेस मैनेजमेंट करवाने का खर्च कैसे सहा होगा यह तो वही जानते होंगे. अच्छा छोड़, कल क्या हुआ यह तो बता............” इस बीच अलका, दीप्ति, सुरेखा भी अपनी अपनी कुर्सी ले वहीं चली आई और एक बड़ा सा ग्रुप बन गया. आधुनिकता की दौड़ में दीप्ति इन लोगों से एक कदम आगे थी, दो दशक पहले उसने अंतरजातीय विवाह किया था, पति का अच्छा बिसनेस था, और एकलौता बेटा आई.आई.टी. से इंजीनियरिंग कर रहा था. रूबी से पूछे गये प्रश्न का उत्तर उसने दिया, ‘‘होना क्या था, पुराने, घिसे-पिटे ख्यालात हैं तो ‘काॅनफ्लिक्ट’ होना लाजमी है.’’ रूबी बोली, ‘‘लगभग दो साल हुये गीता ने अपने क्लास-मेट अख्तर से शादी करने की जिद की थी तब शीला पर जैसे पहाड़ टूट पड़ा था. गुप्ता जी आग बबूला हो गये थे. बेटी को सर पर चढ़ाने के लिये शीला को बहुत कुछ सुनना पड़ा था, तरह-तरह से गुप्ता जी के मन के अंगार को झेला था शीला ने.’’ चुलबुली अलका ने जिज्ञासू बच्चे के समान प्रश्न किया, ‘‘पर शादी तो उसकी अख्तर से ही हुई न?’’ किसी ने कोई जवाब नहीं दिया. अलका की दो बेटियाँ हैं ...बड़ी बेटी फैशन डिजानिंग का कोर्स कर रही है, और छोटी बेटी सी. ए. का इम्तहान देने वाली है. बेटी की शादी में क्या-क्या पापड़ बेलने पड़ते हैं, वह जानना चाहती थी। ‘‘माया तू बता, कल क्या हुआ था? तू तो उसी की काॅलोनी में उसके बराबर वाले फ्लैट में रहती है. पास-पास फ्लैट वालों को तो यह भी पता रहता है कि पति ने बिस्तर में क्या कहा.’’ अरूंधति की बात पर सभी खिलखिलाकर हँस पड़ी. माया, शीला की हमउम्र और बेहद प्यारी सहेली रही है. शादी कर के दोनों लगभग साथ-साथ एक दूसरे के पड़ोस में रहने आई थीं. जब माया छः सालों में तीन बच्चों की माँ बन गई, और शीला को एक भी न हुआ तो सम्वेदना, सहानुभूति जनित प्यार का रिश्ता बहनापे में बदल गया. अनेक कोशिशों के फलस्वरूप दस साल बाद जब शीला की गोद हरी हुई, तब से लेकर आज तक माया ने शीला का भर-पूर साथ दिया. माया का गला रूँधा हुआ और आँखें नम थी. उसकी हताशा और निराशा यूँ बाहर आई. ‘‘आखिर बच्चे इतने खुदगर्ज क्यों हो जाते हैं? याद है न एक बार शीला बहुत बीमार पड़ी थी, उसे अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा था. आठ या नौ बोतल सलाइन चढ़ा था, उसकी आँते सूख गई थी, मरते-मरते बची थी.’’ सभी ने उँचे स्वर में हाँ में हाँ मिलाया और पूछा कि उस घटना से गीता का क्या सम्बंध है. माया ने तिरस्कार में हुँः उच्चारित किया फिर बोली, ‘‘सम्बंध है और सिर्फ उसी से सम्बंध है...गीता की अख्तर से शादी की जिद पूरी करवाने के लिये शीला ने खाना-पीना छोड़ दिया था. आठ दिन तो उसके व्यवहार से किसी को भी पता न चला कि वह भूखी रह रही है, पर कितने दिन..............एक दिन वह बेहोश हो, गिर पड़ी. अस्पताल के बिस्तर में पड़े-पड़े अपनी आँखों के करूण इशारे से शीला ने गुप्ता जी को मना लिया. शीला से बिछुड़ने की कल्पना मात्र ने गुप्ता जी के पत्थर दिल को मोम सा पिघला दिया. इस तरह हुई थी गीता और अख्तर की शादी. उसी गीता ने कल........ .छिः.........’’ माया का मन अजीब वितृष्णा से भर गया............वह चुप हो गई. कुछ देर के लिये सन्नाटा छा गया. हाथ में पकड़े हुये कोल्ड ड्रिंक के ग्लास, पकौडे, चिप्स स्थिर हो गये. शीला की इस सच्चाई का किसी को भी पता नहीं था....... अभी भी कल की घटना पहेली ही बनी हुई थी. कल क्या हुआ.........एक बड़ा सा प्रश्न चिन्ह सभी के चेहरे पर ??? ‘‘कल की घटना तो मेरे सामने की है.’’ सुरेखा ने, जो आज की पार्टी की मेजबान थी, मुँह खोला. ‘‘वह तो शीला ही है जो सब बर्दाश्त कर गई. मेरी सुकन्या ने ऐसा किया होता तो थू करती ऐसी बेटी पर, तब निकल कर बाहर आती.’’ अलका की मासूमियत फिर उछली, ‘‘और गुप्ता जी?’’ सुरेखा के जैसे अंतःचक्षु खुल गये हों, बोली,-‘‘आज मैं समझी कि गुप्ता जी एकदम गऊ क्यों और कब से हो गये हैं. कल तो मुझे बेहद गुस्सा आ रहा था उन पर, कि बेटी पत्नी का अपमान करे और बाप चूँ तक न करे. आज सोचती हूँ बेचारे बोलते भी कैसे, शीला को खोने का साहस दोबारा कहाँ से लाते......’’ अति बोझिल व गम्भीर वातावरण को हल्का करने के लिये अलका बोली,--‘‘अरे भई जल्दी से घटना बताओ, भूख से पेट में चूहे दौड़ रहे हैं।” सुरेखा ने स्नैक्स की प्लेटें चारो ओर घुमाने के बाद बताना शुरू किया, -- ‘‘जारंग होटल के बड़े से हाॅल में गीता-अख्तर ने अपनी बिटिया शेरू के पहले जन्मदिन की पार्टी रखी थी. सुस्वाद भोजन की महक भूख जगा रही थी, परंतु केक कटने का इंतजार तो करना ही था. केक कटा, गाना गाया गया, चिमकी भोंपू बरसे, गुब्बारे फूटे. कितनी खुश थी शीला. शेरू को सीने से चिपकाए गर्व से इठला रही थी शीला. सबसे कह रही थी कि उसने कुछ भी नही किया है, देखो तो, उसकी गीता का इंतजाम कितना परफेक्ट है। डिनर सर्व होने की घोषणा के साथ, सब टेबुल की तरफ टूट पड़े, गीता ने आग्रह किया कि मम्मी की सहेलियाँ पहले खा ले. रात्रि के दस बजने वाले थे, भूख और तृष्णा पराकाष्ठा पर थी, अतः हम सब जल्दी से बढ़ चले. शीला टेबुल के चारों ओर घूम रही थी, मानों कुछ तलाश रही हो, फिर वह एक झटके से पीछे हट गई. पिछले एक घण्टे से शेरू को शीला की गोद में देकर गीता अख्तर के दोस्तों के साथ हँसी-ठट्ठे में मस्त थी. शीला ने गीता के पास जाकर शेरू को थमाते हुए कहा, ‘‘इसे सँभालो हम घर वापस जा रहे हैं’’ और वापस जाकर अपनी कुर्सी पर बैठ गई....सारा खाना मांसाहारी था, वहाँ कुछ भी ऐसा नहीं था जो शीला, उसकी सहेलियों और गुप्ता जी के खाने लायक हो। गुप्ता जी तो प्याज लहसुन भी नहीं खाते हैं, हम सबको मालुम है, हर पार्टी में हम सभी उन लोगों के खाने का इंतजाम अलग से करती आई हैं, फिर गीता कैसे भूल गई..... शायद इसी अफसोस में शीला की आँखें नम हो गई थीं कि इतने में गीता तमतमाती हुई आई और बोली, -‘‘अब इतना नाटक करने की क्या जरूरत है, तुम्हें तो जैसे आदत पड़ गई है नाटक करने की... मालुम तो है न, कि अख्तर को घास फूस वाले खाने से कितनी चिढ़ है, हाई सोसायटी में रहना कब आयेगा..... अब ऐसा मुँह बनाकर दूसरों का मूड तो खराब न करो. कितना खुश है अख्तर आज...अपनी सहेलियों के सामने अख्तर की इज्जत का कुछ तो लिहाज करो।” इतना कहकर गीता जिस तेजी से आई थी उसकी दुगनी तेजी से वापस लौट गई, जहाँ अख्तर और उसके दोस्त खड़े हँसी-ठट्ठा कर रहे थे. गीता की हँसी के फौव्वारों ने मानों हम सभी के मुँह पर जोरदार तमाचा मारा...... सुरेखा क्षण भर रूकी, फिर बोली, ‘‘हम कुछ कहते, उसके पहले ही शीला तपाक से उठी, उसने तनिक दूर खड़े गुप्ता जी का हाथ पकड़ा, और उन्हें लगभग खींचते हुए हाॅल से बाहर निकलते समय हम लोगों से माफी माँगी और आँखों से ओझल हो गई. हम सभी हतप्रत थे.......गुप्ता जी को परिस्थिति का आभास भी नहीं था, यह उनके चेहरे के आश्चर्य से साफ झलक रहा था. आज तक गुप्ता जी अपनी सबसे बड़ी कमजोरी--शीला की खुशी -- के लिए झुकते आए थे, आज मानों शीला ने उनका स्वाभिमान उन्हें वापस लौटा दिया था.’’ सुरेखा चुप हो गई. सभी चुप हो गई. आज की किटी पार्टी में शीला का इंतजार करना अब बेमानी था. ‘हाई-टी’ सर्व हो चुकी थी. बेयरा दो बार आकर सूचना दे चुका था. अब उठना जरूरी हो गया था. सभी सहेलियाँ भारी मन लिये उठी, और अपनी-अपनी प्लेटें परोसने लगीं। ----------------------------------------

Monday 6 February 2017

बसंत - ऋतु

बसंत - ऋतु एक सूरज ने कम्बल सरकाया, हवा हुई रूखी-रूखी सिकुड़े दुबके पंख-पखेरू , हर्षित बोले चीं चीं चीं, भाल-क्षितिज पर बसंत राज की, हुई है दस्तक, पुलकित हैं खग भरे उड़ान लम्बी नभ तक , धानी पीली चूनर ओढ़े, खेतों की दुल्हन डोले, रूप गर्विता अल्हड़ा, राग रंग रस घोले, मदमाती, मुस्काती,हौले-हौले करती स्वागत बसंत ऋतु का मुख पर झीनी चादर ओढ़े .. दो पर मैं कैसे करूँ बसंत का स्वागत मन मेरा बोले…. कल की तरह नहीं हूँ खुश मैं, कल जैसा उत्साह नहीं है, पंख कैसे फैलाऊँ मैं सोचो, उड़ने की इजाजत नहीं है, घात लगाये बैठे हैं बहेलिये चहकने की हिम्मत नहीं है ….. ‘’दामिनी’’ की कराह सुनकर, लगता जैसे…… बसंत मनाने की चाह नहीं है. सुधा गोयल 'नवीन'

Sunday 5 February 2017

चार-कन्या --तसलीमा नसरीन---समीक्षा --

समीक्षा -- चार-कन्या --तसलीमा नसरीन पुस्तक मेले में घूमते हुए जब मेरी दृष्टि बांग्लादेशी कथाकार तसलीमा नसरीन के उपन्यास 'चार-कन्या' के हिन्दी अनुवाद पर पड़ी तब मैं स्वयं को न रोक सकी और झटपट खरीद लिया। अपने देश से निर्वासित, अति विवादित लेखिका के कम चर्चित उपन्यास को एक बार पढ़ना शुरू किया तो आद्योपांत पढ़ती ही चली गई। परम्परागत-रूढ़िवादी परिवारों में पली-बढ़ी लड़कियों के कन्धों पर सारी नैतिकता, सारी मान-मर्यादाओं को लाद दिया जाता है। सारे परिवार को खुश रखना, पति की आज्ञा का अक्षरशः पालन करना, अपनी इच्छाओं-आशाओं, महत्वाकांक्षाओं को ताक पर रखकर मूक कठपुतली की तरह हँसते हुए नाचने वाली को स्त्री आदर्श और 'अच्छी' बहु-बेटी दर्ज़ा देने वाले भूल जाते हैं कि नारी कोई काठ की बनी नहीं है। उसके सीने में भी एक दिल धड़कता है। उसकी भी सोच है, अरमान है। वह सिर्फ शरीर या मांस का लोथड़ा नहीं है। 'लज्जा' जैसी चर्चित कृति की लेखिका तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास 'चार-कन्या स्त्री-विमर्श की कई खिड़कियां खोलता है, जिससे आती बयार से पाठक अछूता नहीं रह सकता। यमुना, नूपुर, शीला और झूमर चार बहनों की कहानी को लेखिका ने चार अध्यायों में बाँटा है-- दूसरा पक्ष, निमंत्रण, प्रतिशोध और भँवरे जाकर कहना। दूसरा पक्ष पत्रात्मक शैली में है। ब्रह्मपल्ली मैमनसिंह से नूपुर अपनी दीदी यमुना को बुबू का संबोधन देकर पत्र लिखती है। बातों ही बातों में जीवन की बड़ी-बड़ी सच्चाइयां उजागर हो जाती है। यमुना में अपने अधिकार-बोध की तीव्र जागरुकता है। उसे काफी कुछ भुगतना पड़ता है। समाज के उलटे-सीधे नियम उसे तोड़ कर रख देते हैं। स्त्री हमेशा शक के कटघरे में क्यों खड़ी कर दी जाती है? कोई भी रिश्ता स्वार्थ-रहित क्यों नहीं हो सकता? हमेशा स्त्री से ही बलिदान की आशा क्यों की जाती है? उसके काम को प्राथमिकता कब दी जायेगी? क्या हर बार किसी मुकाम पर पहुंचने के लिए स्त्री को रिश्तों के दलदल से होकर गुज़रना पड़ेगा? इन उत्तर खोजने के लिए लेखिका ने स्त्री-मन की गहराइयों में है। लेखिका की संवेदनशीलता/भावुकता की पराकाष्ठा देखकर आश्चर्य है कि जिसने स्वयं न भोगा हो, वह इतनी अंतरंग कोमल-कठोर भावनायें इतनी सहजता से कैसे व्यक्त कर सकता है सकता है। तसलीमा जी भले ही शरीर की डॉक्टर रहीं हों, परंतु मन की गहराइयों में उतर कर अछूते पहलुओं जिस अधिकार और विश्वास से उनकी लेखनी चली है, उसका कोई सानी नहीं है। नारी का उत्पीड़न कोई नयी बात नहीं है। निर्भया हो या शीला, नारी हमेशा ठगी जाती रही। सच्चे प्रेम की अभिलाषिनी शीला के सपनों का महल ताश के पत्तों के घर सा ढह जाता है जब उसका प्रेमी ही सौदागर निकलता है। निमंत्रण के बहाने शीला के साथ जो दुर्व्यवहार होता है वह छोटी-छोटी घटनायें लेखिका के शब्द-कौशल और शब्द-प्रवाह की संजीवनी से जीवंत हो उठी हैं। तसलीमा जी कहती हैं, "मैं ईश्वर में विश्वास नहीं करती, न ही धर्म, झूठ, अंधश्रद्धा, राष्ट्रवाद, हिंसा में। मैं मानवता, अधिकार, आज़ादी, प्रेम, सद्भावना में विश्वास करती हूँ।" ऐसा धर्म जो आज़ादी नहीं दे सकता, प्रेम का गला घोंट देता हो, अंध-श्रद्धा और हिंसा में विश्वास करता हो, तसलीमा जी को स्वीकार नहीं। प्रेम ईश्वर का वरदान है, और नारी ईश्वर की श्रेष्ठतम रचना। नारी कोमल हो सकती है पर कमज़ोर नहीं। वह वसुधा सामान सहनशील तो है, पर सीमा पार कर आजमाने की कोशिश की तो प्रतिशोध की ज्वाला से ऐसे जलाती है कि जलने वाला उफ़ भी नहीं कर पाता। झूमर ने हारुन से बदला भी ले लिया और अपने सतीत्व पर आँच भी न आने दी। स्त्री-मन की गहराइयों में उतर कर लेखिका ने उसके अवसाद,पीड़ा-दुखः, स्वाभिमान, आत्मविश्वास, प्रेम, समर्पण सभी संवेगों को दुलराया, पुचकारा और सहलाया है। परिस्थितियां चाहे जितनी विकट हों, सारी दुनिया के साथ-साथ चाहे माँ-बाप भी विपरीत हो जाएँ, मानसिक-शारीरिक अत्याचार सहने पड़े, तब भी तसलीमा जी की नायिका हार नहीं मानती। भँवरे जाकर कहना में हीरा (नूपुर) अपनी नारकीय शादी-शुदा ज़िंदगी से बगावत करती है, अश्लील-अनर्गल इलज़ाम को अनदेखा कर भाग जाती है, मनजू चाचा और पापड़ी की मदद से एक अदद छोटी सी नौकरी और घर पाने में सफल हो जाती है। फिर उसे कैसर के रूप में अपनी चाहत और परम आनंद भी मिल जाता है। सुधा गोयल ‘नवीन’ जमशेदपुर 09334040697