Thursday 29 October 2015

हाउस नंबर 302 (लघु कथा)

(लघु कथा)

हाउस नंबर 302

हर दिन जब मैं कॉमन गैराज में गाड़ी पार्क करता हूँ, अक्सर एक खिड़की पर जाकर मेरी नज़र टिक जाती है। वह खिड़की  हाउस नंबर 302 की रसोई या जिसे आज की भाषा में हम किचेन कहते हैं, की लगती है क्योंकि मुझे गैस का चूल्हा भी दिखाई पडता है। गैराज की सतह से किचन की सतह लगभग तीन सीढ़ी की ऊंचाई पर होगी इसलिए मुझे किचन का पूरा दृश्य दिखाई नहीं देता। लेकिन जिस कारण मेरी नज़र हर दिन उस खिड़की की तरफ उठती है उसका कारण है रात के साढ़े दस बजे रोज़ एक भद्र पुरुष का गैस स्टोव पर सब्जी छौंकना। मैं अपने काम से लगभग रोज़ ही इसी समय घर आता हूँ। मेरी पत्नी मेरे लिए खाना गर्म करती है, गर्म फुल्के बनाती है और मुझे गर्म खाना खिलाकर परम सुख और आनंद का अनुभव करती है। यह बात वह मुझे गर्व से अनेकानेक बार बता चुकी है। जब मैं गरमागरम खाना खा रहा होता हूँ तब मुझे वह भद्र पुरुष याद आता और मैं सोचने लगता , बेचारा कितना दुःखी है कि दिन भर हाड़-पेल मेहनत के बाद कोई उसे गर्म खाना खिलाने वाला भी नहीं है। बेचारे की क्या-क्या मजबूरियाँ होंगी कि एक खाना बनाने वाली भी नहीं रख सकता। पत्नी ने छोड़ दिया होगा या फिर दुनिया से ही चली गई होगी ,वरना किसे पागल कुत्ते ने काटा है जो आधी रात में सब्जी छौंकता है, फिर उसके बाद रोटी बनाता होगा।
दिन बीतने के साथ मेरी उस भद्र पुरुष में दिलचस्पी भी बढ़ती गई। अब मैं उसके हाव-भाव पढने की कोशिश करता, परन्तु मुझे ठीक से कुछ भी दिखाई न देता, अधिक देर वहाँ रुककर मैं हँसी का पात्र बनना भी नहीं चाहता था, लेकिन मेरे ज़हन में रह-रह कर सवाल उठते। कही उसकी पत्नी अपाहिज तो नहीं है, या फिर इतनी बीमार रहती है कि बेचारे को काम से लौटने के बाद खाना बनाना पड़ता है। खाना बनाने, खिलाने और समेटने के बाद, १२बजे से पहले तो सो नहीं पाता होगा। फिर सुबह सबेरे काम पर जाता ही होगा। मैं सोचने लगा, मेरी पत्नी भी काम करती है फिर भी दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती महंगाई के कारण हमें कुछ खर्चों पर अपना मन मारना ही पड़ता है। आजकल एक आमदनी में गुज़ारा करना कितना कठिन है। यह भद्र पुरुष कितनी चीज़ों के लिए मन मार कर रहता होगा।
मन ही मन मैं प्रार्थना करने लगता, कि हे भगवान इसकी पत्नी को स्वस्थ कर दो। आखिर पुरुष होने के नाते कहीं न कहीं मेरा उससे भावनात्मक रिश्ता जुड़ चुका था। मैं सोचता यह पुरुष नाम का प्राणी  अपने पूरे जीवन-काल में महिला के रूप में कभी माँ, कभी बहन, तो कभी पत्नी पर किस हद तक आश्रित रहता है। स्त्री ही वह प्राणी है जो पुरुष को दैहिक और दैविक सुखों से साक्षात्कार करवाती है। मुझे लगता कि वह व्यक्ति मुझसे कहीं अधिक साहसी, धीर-गम्भीर, और परिपक्व विचारों वाला होगा, क्योंकि मैं तो शायद ऐसी परिस्थिति में पागल ही हो जाता।
क्या उस भद्र पुरुष की कोई संतान है? यदि है तो बेचारे को उसे भी स्कूल भेजना , टिफिन तैयार करना , ड्रेस प्रेस करना  और होमवर्क भी करवाना होता होगा , और यदि नहीं है तो हाय री उसकी किस्मत, गृहस्थाश्रम  के महान कर्म, धर्म एवं  आनंद से वंचित है बेचारा !!  
मेरी वैचारिक यात्रा रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी।  प्रति दिन मैं पिछले दिन की अपेक्षा अधिक उदास और थका-हारा घर लौटता। पहले मैं केवल अपनी बलेरो गाडी पार्क करने के बाद उसे देखता और विचारों के झंझावात में फंसता था, लेकिन अब मुझे दिन में, ऑफिस में भी उसी का ख्याल आता रहता कि वह क्या कर रहा होगा।? उसने लंच किया भी है या नहीं? घर जाते हुए क्या वह सब्जी भी खरीदता है?
मेरी पत्नी ने सब्जी खरीदने की जिम्मेवारी भी अपने ऊपर ही ले रखीं है। ऑफिस के काम के  साथ-साथ मेरी पत्नी घर के सारे छोटे-बड़े काम गज़ब की  फुर्ती, लगन, खुशी और सहजता से निबटाती है।  उसने मुझे कभी यह एहसास नहीं होने दिया कि जैसे पैसा कमाने में वह मेरा साथ देती है, उसी तरह घर चलाने में मुझे उसका साथ देना चाहिए। सहसा मैं स्वयं को दुनिया का सबसे भाग्यशाली व्यक्ति समझने लगता। लेकिन तत्छण मेरी विचारधारा पुनः उस भद्र पुरुष की ओर मुड़ जाती और मैं गमगीन हो जाता।
मेरी पत्नी से मेरा दुःख देखा नहीं जा रहा था। व्यवहारकुशल, हँसमुख, सबके स्नेह की स्वामिनी  मेरी पत्नी एक दिन  हाउस नंबर 302 जाने का मन बना लेती है। उसने मुझसे कहा कि आज इतवार है और पोलियो ड्रॉप्स बंटने  का दिन है। वह  रोटरी संस्था (जिसके हम सदस्य हैं) की वॉलेंटियर बनकर उनके घर जायेगी और वास्तविकता  का पता लगाकर मेरी सहधर्मिणी होने का सबूत देगी।
मेरे अति प्रिय पाठको, आप शायद इस बात का अंदाजा भी नहीं लगा सकते  कि उस दिन जब मेरी पत्नी उनके घर से लौटकर आई और उसने मुझे विस्तार से उनके घर की राम-कहानी सुनाई तो वह जिस प्रचण्डता  से हँस रही थी मैं उतनी ही प्रचण्डता से शर्म व हीनता-बोध से ग्रसित होता जा रहा था।
कहानी कुछ इस प्रकार थी।
हाउस नंबर 302 में पाँच फुट दस इंच लम्बे शालीन, सुसंस्कृत, गम्भीर प्रकृति के डॉक्टर चौधरी अपनी  बेहद आकर्षक, सुन्दर डॉक्टर पत्नी शमिता के साथ रहते थे।  उनका एक दो साल का प्यारा सा बच्चा भी था।  जिसे दिनभर आया के पास छोड़ कर दोनों मियाँ बीबी अपने नर्सिंग होम जाते। क्योंकि बच्चा दिनभर अकेला रहता इसलिए शाम को घर आने के बाद से देर रात तक, जब तक बच्चा सो नही जाता वे दोनों उसके साथ खेलते और उसके सोने के बाद एक साथ मिलकर खाना बनाते और खाते। क्योंकि पति को सब्जी काटनी नहीं आती इसलिए वो छौंकता था। आटा बीबी सानती और रोटी बेलकर देती और पति सेंकता था। उनके किचन में गैस जिस काउंटर पर थी उसके ठीक पीछे के काउंटर पर काटने -सानने का काम चलता रहता था जो मुझे कभी दिखाई नही दिया और मैंने……………………. .  
वह दिन और आज का दिन मैंने किसी भी मसले की गहराई में जाने से पहले अपनी राय कायम करना छोड़ दिया है।

सुधा गोयल ‘नवीन’
जमशेदपुर




मेरे खत का ज़बाब आया है

मेरे खत का ज़बाब आया है

हां उसने मुझे बुलाया है,
कल मेरे खत का जबाब आया है।

याद नहीं दिन, महीने, बरस,
कब भेजा था उसे मैंने एक खत।

इतना याद है ज़रूर तब आँखों पर नहीं चढ़ा था चश्मा,
देख सकती थी मैं नंगी आखों से रंगीन सपना।

वह दिन कहता तो मैं दिन और वह रात कहता तो कहती मैं रात,
कड़वी बातें भुला देती थी, मानकर उसे अपना।

उसकी हंसी और ज़रा सी ख़ुशी पर मैं,
आपना  सब कुछ लुटाने को तैयार थी,
कही-अनकही बातें जानकर भी,
झुठलाने को तैयार थी।

अपनी खुशियों की नींव पर मैंने,
उसके सुखों का घरौंदा बनाया था,
इंसान बनाने के लिए इंसानियत का पाठ पढ़ाया था,
आदर-प्यार आदि संस्कारों को घुट्टी में मिलाकर पिलाया था।
उसने भी मुझे विश्वास दिलाया था,
जाकर विदेश केवल और केवल इंसान बनकर वापस आएगा,
मेरे हसींन सपनों को और रंगीन बनाएगा।
फिर ना वह आया ना ही उसका कोई खत,
दिन महीने बीत रहे थे बरस पर बरस।

पर मुझे यकीन था वह आएगा,
न कभी ठेस पहुंचाई थी ना ही पहुचायेगा।

मेरे संस्कारों की बेड़ियों से वह बंधा था,
राम-कृष्ण अशोक जैसे पूर्वजों का जना था।

कल मेरे खत का जबाब आया है,
हां उसने मुझे बुलाया है।

माँ को अपने सिर आँखों पर बैठाने के लिए,
आदर-मान और सब सुख संपन्न कराने के लिए,
जो ना मिला कभी चरणों में लुटाने के लिए,
आतुर है वह मुझे बुलाने के लिए।

बेटा मैंने खत लिखा था तुम्हें बुलाने के लिए,
काश! तुम स्वयं आते मुझे मनाने के लिए,
तुम्हारी एक झलक काफी होती बरसों का गम भुलाने के लिए।

इस लम्बे अंतराल ने मुझे बहुत कुछ सिखाया है,
घड़ी की सुइयों ने घूम-घूम कर समझाया है,
कि समय बड़ा ही बेशरम सरमाया है।

वहाँ तेरे पास सम्पदा ही सम्पदा है,
यहाँ मेरे पास समय की पूंजी है,
तू अपनी सम्पदा में खुश रह,
मुझे अपनी पूंजी सहेजने दे,
क्योंकि उसमें तेरी यादें, तेरी बातें, तेरी शिकायतें,
और तू ही तू समाया है।।

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सुधा गोयल 'नवीन'



वट सावित्री पूजा की पूर्व संध्या पर

हे सावित्रे,
हे पति परायणे,
त्याग, तपस्या, की मूर्ति,
हे देवि, हे सती, हे सधवा,
युगों-युगों से बलिदान की
तुम्हीं हो परिभाषा।  
हे आदर्श पत्नी,
अनगिनत पीढ़ियों के लिए मिसाल,
नर-मुनि-देवता भी करते हैं जिसे
शत-शत प्रणाम!
हर माँ रखना चाहे, बेटी का नाम,
तुम्हारा, क्योंकि,
मात्र तुम्हारा नाम रखने भर से,
सत गुणों का स्थानान्तरण तय है।
हे मुनि कन्या,
एक अरज़ मेरी भी सुनना,
किसी जनम में
बनकर सत्यवान, अपने गुणों को,
विस्तारित करना,
हर पुरुष तुम सा एकनिष्ठ,
पत्नी परायण, समर्पित
और भावुक हो जाए,
विनती मेरी इतनी सुनना,
फिर ना  बलात्कार होगा,
ना ही चीर-हरण, और
ना ही  बालिकायें आत्मदाह को,
मज़बूर होंगी।  
एक बार पुरुष योनि में समाकर,
तुम्हें पुरुष का खोया गौरव
लौटाना होगा।
उनके सम्मान, उनके गुरुपद,
पर हमारा विश्वास जगाना होगा।
फिर एक बार तुम्हें आना होगा,
आना ही होगा।।

सुधा गोयल "नवीन "

16.5.15

मेरा शहर --- जमशेदपुर



मेरा शहर --- जमशेदपुर

सुधा गोयल "नवीन"


जो जमशेद जी नौसेरवान जी के सपनों की उड़ान है,
जहाँ दलमा की पहाड़ियां हैं,
स्वर्णरेखा और खरकाई का संगम भी,
बाग़ बगीचे, ताल- तलैया, फूल भौंरे अनगिनत तितलियाँ,
जहाँ आम लीची अमरूद केला घर घर की शान है
और जिस पर मौसम भी मेहरबान है,

जहाँ रंग भेद और ऊंच नीच को जाता है दुत्कारा
जिसने हिन्दू मुस्लिम सिक्ख ईसाई सबको है स्वीकारा,

फौलादी इरादों वाले यहाँ बनाते है फौलाद,
यहीं की उपज हैं अस्तद, प्रियंका, माधवन, और इम्तियाज.......
जमशेदपुर, कहो या कहो टाटा, हम करते हैं इस पर नाज …...