Friday 23 May 2014

क्या – क्या लौटाओगे ? (poem)



25 साल जेल में सजा के आरोप में बंद व्यक्ति को निरपराध साबित होने पर छोड़ दिया जाता है।
निम्न पंक्तियों में उस व्यक्ति की अंतर्व्यथा और पीड़ा सरिता रूप में बही है।

क्या – क्या लौटाओगे ?

मेरे अनमोल पच्चीस साल, पच्चीस साल के नौ हजार एक सौ पच्चीस दिन,
घंटे …………. मिनिट …………
मेरे सावन , मेरे बसंत , मेरे पतझड़ ……………
क्या लौटा पाओगे मुझे?
आसुओं के सैलाब में गुम हो गई,
मेरी बीबी की आँखें ……………
मेरे जिगर के टुकड़ों का अल्हड बचपन,
मासूमियत, इजहार, इकरार ,
क्या लौटा पाओगे मुझे?
मेरे इंतज़ार में चुक गईं ,
मेरी माँ की आँखों की चमक …………
मेरे बाबा के सपने, चैन और सुकून,
मेरी छुटकी बहना का विश्वास
क्या लौटा पाओगे मुझे?
अपराधी के साथ एक कोठरी में रहना,
स्वाभिमान, आत्मसम्मान की धज्जियाँ सहना,
वक्र हँसी और तानों से बिखरना,
घुटन और कसक से मुक्त करा पाओगे मुझे?
बेमतलब सी, बेमानी जिंदगी,
जिसे तुम लौटाने की बात करते हो,
वह रक्त, मांस संवेदनाहीन कंकाल है बस,
लौटाना ही चाहते हो तो, लौटा देना,
एक वादा, एक विश्वास, एक आश्वासन
और निरपराधी को एक मौक़ा, कहने-सुनने का
क्या लौटा पाओगे मुझे?
सुधा गोयल “नवीन”

Thursday 8 May 2014

माँ ( poem )





                   माँ


तुम देतीं देतीं और बस देती ही रहीं
ममता दी, प्यार दिया, संरक्षण और अधिकार भी,

पीड़ा सहकर मुस्कुराने की कला,
लांछनों, आक्रोशों को पी जाने की अदा,
माँ कहाँ से लाई इतना बड़ा दिल
कि हमारी माफ़ न कर सकने वाली
भूलों पर भी, कभी न दी सजा.

चोट हमें लगती थी, भर आते नैन तुम्हारे,
खाते जब तक न हम खाना,
एक कौर भी न जाता पेट में तुम्हारे,
आम की बौरों संग आता परीक्षा का मौसम
सो जाते सब तुम जागती संग हमारे,

देर होती बाबू जी को घर आने में ज़रा सी,
पलक- पांवड़े बिछा, करने लगती तुम,
पाठ सुन्दरकाण्ड का... और ठहराई जातीं डरपोक भी,

न कुछ चाहा, न कभी कुछ माँगा,
तुम देतीं देतीं और बस देती ही रहीं

माँ,  कैसे कर पातीं थीं तुम यह सब,
आज आया है समझ में  हमारे,
क्योंकि आज मुझे भी किसी ने पुकारा है,
तोतली बोली में  माँ.........

सुधा गोयल 'नवीन'