‘‘छोड़ा देश पराया’’
‘‘काहे को ब्याही विदेस रे, सुन बाबुल मोरे,
मैं बाबुल तोरे अंगना की चिरिया
उड़ गई न भेज्यों कछु सन्देस रे, सुन बाबुल
मोरे...........
म्यूजिक सिस्टम का बटन टप्प से दबाते हुए अरनव ने कमरे में प्रवेश किया -- ‘‘ओह ! यही गाना रोज रोज लगा देती हो, पंद्रह साल हो गये हमारी शादी को, और वन्दना तुम भी........., लगता है जैसे आज भी शादी के मंडप में बैठी हो............, हाउ सिली..........कम आॅन गेट रेडी....., हमें बाहर जाना है. अब यह मत कहना कि डार्लिंग मूड नहीं है..ओ के.................. बैले शो के दो टिकिट्स लाया हूँ.......टेन डाॅलर्स ईच....कम
आॅन गेट अप..........’’ ना कहने की कहीं कोई गुंजाइश ही नहीं छोड़ी अरनव ने. हमेशा ऐसा ही होता है. अरनव के बोलने का लहजा इतना मधुर, इतना शांत है कि वन्दना के सीेने में घुमड़ते ज्वार भाटे को फूटने का एक भी मौका नहीं मिलता. कठपुतली सी वह उठी और अपने कमरे में जाकर आदमकद शीशे के सामने स्टूल पर धम्म से बैठ गई. एक टक खुद को निहारने लगी. आज भी वह उतनी ही सुन्दर है, जितनी आज से पंद्रह साल पहले शादी के वक्त थी. परंतु उस सुंदरता और आज की सुंदरता में कितना अंतर आ गया है. तब वह सूरज की पहली किरण द्वारा खिली हुई कली के समान, ओस से नहाई हुई कोमल, नाजुक, सद्यः स्नाता सुन्दरी जैसी थी. जरा सी आहट से डरकर, कुलांचे भर कर भाग जाने वाली हिरणी की तरह भोली और कमसिन थी, फिर आज इतनी बेजान या निर्जीव क्यों? वह समझ नहीं पाती....... अरनव ने उसे पहले से भी अधिक सुन्दर दिखने के लिये ‘‘रैवलोन, आॅयल आॅफ ओले’ और न जाने कितने कीमती काॅस्मेटिक्स खरीद कर दिये हैं. हर हफ्ते ब्यूटी पार्लर जाना वन्दना की खुशी कम और मजबूरी ज्यादा है.......क्योंकि अरनव वन्दना पर जान लुटाता है.......
अरनव शावर ले रहा है. वन्दना ने वहीं बैठे-बैठे पूछा - ‘‘जान ! आज कौन सी ड्रेस पहनूँ............आॅफिस में बहुत काम था, बहुत थक गई हूँ, समथिंग सिम्पल?’’
शावर की आवाज के साथ जोश भरी आवाज गूंजी, - ‘‘ओह नो !
वही पहनना डार्क ब्लू, जो मैं पिछले हफ्ते लाया था. डार्लिंग समथिंग फारमल एंड स्मार्ट. !’’
चेहरे पर तरह तरह के लोशन लगा कर फ्रेश दिखने की कोशिश में वन्दना की आँखों के कोरों से एक बून्द आँसू ने टपकने की जुर्रत करनी चाही. परंतु वन्दना ने रोक लिया. अरनव हेट्स टियर्स.....
आँसू देख कर उसे इतना गुस्सा आता है कि वह आपे से बाहर हो जाता है. आँसुओं को वह संवेदनाओं, भावनाओं की अभिव्यक्ति कम, व्यक्तित्व की कमजोरी अधिक मानता है, और कमजोर लोगों के लिये उसके जीवन में कोई जगह नहीं.......
अरनव अपनी पत्नी को, जिसे वह प्रेमिका मानता है, हर क्षण फूल की तरह खिली देखना चाहता है, अब यह बात अलग है कि फूल को मुरझाने की स्वतंत्रता होती है...
अरनव की प्रेमिका बनाम पत्नी की जवानी सदाबहार रहे, इसलिये अरनव बच्चा भी नहीं चाहता. मातृत्व वहन-काल का बेडौल रूप वन्दना के लिये, वह स्वप्न में भी बर्दाश्त नहीं कर पाता. उसकी जान... उसके कारण शारीरिक रूप से अस्वस्थ हो जाये, कभी उल्टियां करे, कभी शिथिल-निढाल पड़ जाये, कदापि नहीं.........! उसकी स्वप्न सुन्दरी ऐसी ही रहेगी, जीवन पर्यत !!
वन्दना श्रृंगार हाथों से कर रही थी, लेकिन उसका मन सदियों पीछे मायके की गलियों में भटक रहा था...
आई. एस. सी. बोर्ड की परीक्षा में वन्दना ने अपने स्कूल में टाॅप किया था, उसी साल वन्दना को मिस काॅलेज का खिताब भी मिला था. उसके मम्मी-पापा खुशी से फूले नहीं समाये थे. वे गर्व से सिर ऊँचा कर कहते फिरते, -
‘‘देखना मेरी बेटी के लिये सात समुन्दर पार से सफेद घोड़े पर सवार होकर कोई राजकुमार आयेगा और मेरी बेटी को ब्याह कर ले जायेगा, सब देखते रह जायेंगे,’’ उनके खानदान में बेटी की शादी में 15-20 लाख का खर्च मामूली सी बात थी. ऐसे में बिना एक पैसा खर्च किये बेटी की शादी के स्वप्न देखना चाँद सितारे तोड़ लाने जैसी बात थी.... लेकिन ऐसा ही हुआ............
वन्दना को आज भी याद है वह दिन -- छोटी मौसी की देवरानी का लड़का था अरनव !! वन्दना मौसी के घर गई हुई थी. प्लस-टू के बाद आगे की पढ़ाई कहाँ करे? किस लाइन में जाए? किस तरह तैयारी करे? इतने सारे सवाल.........छोटे मौसा से अच्छा सलाहकार और कौन हो सकता था, यही सोच कर मम्मी ने उसे जमशेदपुर भेज दिया था. बड़ा शहर, आधुनिक सभ्यता का खासा प्रभाव इस शहर पर देखा जा सकता है.......इस शहर के हर परिवार का एक न एक सदस्य विदेश में बसा हुआ है. खुली हुई मानसिकता, व ऊँची सोच के धनी लोग हैं यहाँ.............
अनरव अमेरिका से छुट्टियाँ बिताने आया हुआ था. उस दिन बातों ही बातों में अरनव ने वन्दना को शोख नजरों से देखा था और मौसी से सीधे शब्दों में कहा था, --‘‘ताई आपकी इस परी को यदि मैं उड़ा कर सात समुन्दर पार ले जाऊँ.. .. तो आप क्या कहेंगी? बस देखती रह जायेंगी ? हैं न.........’’
हँस कर वन्दना भाग गई थी. अनरव वन्दना से दस साल बड़ा था. पढ़ाई पूरी करने के बाद वह अमरीका की ही किसी कम्पनी में वरिष्ठ आॅफिसर था. उस दिन की बात को सभी ने हँसी मजाक समझ भुला दिया. लेकिन अरनव पर तो मृगनयनी, कोमलांगिनी, सुमधुरा वन्दना का जादू चल गया था. उसने ऐन-केन-प्रकारेण अपने मन की बात वन्दना के मम्मी पापा तक पहुंचा दी. पापा तो जैसे उछल ही पड़े.
अरनव ने उनसे वादा किया था कि वह वन्दना की पढ़ाई जारी रखेगा, वह जो भी करना चाहेगी मदद करेगा. ‘अंधे को क्या चाहिए दो आँखे’ - पापा राजी हो गये. अरनव को पापा का एक पैसा भी नहीं चाहिए था.
वन्दना अरनव की शादी हो गई. अठारह साल की मासूम उम्र में ‘खोइ - लावा’ सिर के पीछे फेंक कर, पति का साथ जीवन भर निभाने की कसमें खाते हुए, सजी, सँवरी वन्दना पापा मम्मी को रूलाते हुए विदा हो गई. फिर पहुंच गई अमेरिका !! वन्दना खुश थी ! अरनव खुश था ! पापा मम्मी भी खुश थे !
भोली वन्दना अरनव के प्यार में डूबती चली गई, बस डूबती ही चली गई. जीवन की नैया प्रेम के अतल सागर में मन्द मधुर गति से बहते-बहते कितने आगे निकल गई पता ही न चला.
वन्दना ने ग्रेजुएशन किया फिर मैनेजमेंट की डिग्री हासिल की, और एक इंटरनैशनल कम्पनी में सीनियर मैनेजर के पद पर नियुक्त हो गई. हर कदम पर अरनव ने वन्दना का साथ दिया. वह प्रेमी - पति तो था ही, वन्दना का सबसे बड़ा हितैषी, शुभचिंतक, व मार्गदर्शक भी था. वन्दना भी लगभग भूल चुकी थी कि उसका अरनव से अलग कोई अस्तित्व है, उसकी अपनी कोई चाहत है, कोई ख्वाहिश है........पंद्रह साल बीत गए.......... पर आजकल वन्दना उदास रहने लगी है. वह क्षण जब वह नितांत अकेली होती है काटे नहीं कटते. वह टेप रिकार्डर आॅन कर देती है फिर यही एक गाना ‘काहे को ब्याही विदेस रे सुन बाबुल मोरे’ सुनती रहती है बार, बार, तब तक जब तक अरनव आकर टेप बन्द नहीं कर देता. आज भी यही हुआ... वन्दना कठपुतली सी सजी-सँवरी अरनव की बाँहों में बाँहें डाले पार्टी में गई, हँसी बोली और घर वापस आकर जब अरनव बिस्तर पर पसरते ही खर्राटे लेने लगा तो रोज की तरह उसकी अंतर्वेदना सिसक उठी.. ना जाने कब तक वह जागती रहती है यूँ ही हर दिन....वह सोचने लगी.............मातृत्व वहन करने की चिर स्वाभाविक अभिलाषा क्या अपराध है ? वन्दना के अस्तित्व पर कुठाराघात ! एक प्रश्नचिन्ह ! वह तड़प उठती है.
समस्त आधुनिक सुख सुविधा सम्पन्न घर, कीमती कटग्लास, फ्रांस व पिकासों की पेंटिग्स, कारपेट्स, जकूजी सब जैसे नश्तर चुभाने लगते हैं, यह सब अरनव की पसन्द थे. घर का एक-एक, छोटे से छोटा कोना भी उसकी मर्जी से सजा था, यह बात और है कि सजा चुकने के बाद वह वन्दना की रजामन्दी जरूर ले लेता और पूछता,
--‘‘डार्लिंग........हाउ इस इट? जस्ट लाइक योर ड्रीम्स.........है.. .न?’’ तब वन्दना बेहद खुश होकर जोर जोर से सिर हिला कर स्वीकृति दे देती. आह ! कितना बड़ा धोखा!
ज्वार-भाटा सुलगता रहता है, तो वर्षो बीत जाते हैं, किसी को पता भी नहीं चलता, जमीन का सीना धधकता रहता है और धुँआ भी दिखाई नहीं देता. लेकिन यदि वह फूट गया, जो अक्सर अचानक, पूर्वसूचना दिए बगैर ही होता है, तब आग की नदी निर्बाध गति से बह निकलती है. सब कुछ तबाह, बर्बाद कर देती है, किसी का भी बच निकलना असंभव होता है.
प्रकृति की यह सच्चाई वन्दना की जिन्दगी की असलियत बन जाएगी, यह वन्दना ने भी उस दिन तक नहीं सोचा था, जब तक अनिल भैया और कविता भाभी की पहली संतान होने की खुशी में माँ का न्यौता स्वीकार कर वन्दना पहली बार अरनव के बिना इंडिया आई थी. यहाँ आकर उसे पता चला कि उससे दस साल छोटी उसकी बहन वसुधा भी माँ बनने वाली है, बस कुछ ही महीनों बाद. कविता भाभी व वसुधा अपने सभी अनुभव जिस अन्दाज से बयान करतीं तो उसे महसूस होता मानो उसका मजाक उड़ा रहीं हों, जैसे कह रहीं हों कि बन्दर क्या जाने अदरक का स्वाद !! अरे ! माँ बनी होती तब जानती न कि सुख क्या होता है. अरे तुम तो लकड़ी, पत्थर, धातु की बनी चीजों में सुख ढूंढ रही हो.............
कविता भाभी दीन दुनिया से बेखबर प्रफुल्ल को सम्भालने, सुलाने, नहलाने, दूध पिलाने में रात दिन खोई रहती. वन्दना सोचती आॅफिस में आठ घंटे काम करने के बाद वह कितना थक जाती है और यहाँ कविता भाभाी सारे दिन घर का काम करती हैं, रात भर प्रफुल्ल के साथ जागती हैं, कभी नैपी चेंज तो कभी फीड कराती हैं, फिर भी कितनी हंसमुख और उत्साह से भरी रहती हैं.
एक आह, एक टीस, एक दर्द वन्दना का कलेजा चीर गया......उसने अरनव को उसी दिन रात को फोन मिलाया था और औपचारिक बातों के बाद सीधे अपने मन की बात कह सुनाई थी, - ‘‘जान! मैं भी माँ बनना चाहती हूँ............. देखों, अभी तक जैसा तुमने चाहा मैंने वही किया, नाउ इट्स माई ट्र्न....आई वाण्ट बेबी
डार्लिंग.........इज इट ओ के विद यू?’’ फिल्मी अन्दाज में लगातार बोलने वाला अरनव इस बात पर ऐसा चुप हो गया था कि वन्दना अवाक हो गई. बड़ी हिम्मत जुटा कर बोली, --‘‘जान ! कुछ तो बोलो, आई वाण्ट टू कम बैक एण्ड हैव यू इन मी.’’
तत्परता से अरनव की आवाज सुनाई दी, --‘‘ओ ! नो !, नो ! बेबी ! डोण्ट बी फूलिश ! मैं तुमसे बाद में बात करूंगा.’’ और फोन कट गया. ऐसा पहली बार हुआ था. अरनव तो घंटों बातें करता थकता ही नहीं था. आज क्या हो गया ? वन्दना का सारा उत्साह पानी बन आँखों से बह निकला था. निढाल हो बिस्तर पर गिर गई, अपलक चलते हुये पंखे को देखती रही. तकिया भींगता रहा.......बस भींगता रहा......न जाने कब तक.........घर में सभी किसी न किसी काम में व्यस्त थे. माँ, कविता भाभी, वसुधा यहाँ तक कि नौकरानी शीला भी, सिर्फ उसे ही कुछ काम न था सभी उसके साथ मेहमानों जैसा व्यवहार करते थे. अगले दो तीन दिन घर में ढेरों तैयारियाँ होती रही. छेड़-छाड़, हंसी-मजाक शोर-शराबा. बाबू जी व भैया ऐसी पार्टी देना चाहते थे कि सारा शहर याद करे. घर छोटी-छोटी जगमगाने वाली बत्तियों से सजाया जा रहा था, पकवान की लिस्ट बन रही थी, हलवाई का चुनाव हो रहा था. और वन्दना इंतजार कर रही थी..........अरनव के फोन का इंतजार....कितने उत्साह से आई थी वह इंडिया.......लेकिन....... ......
ऐसे में एक दिन माँ ने दुखती रग पर हाथ रख दिया. कविता भाभी के लिये साड़ी का चुनाव करते समय माँ बोली,-- ‘‘तू सबसे बड़ी थी बन्नो (माँ लाड़ से उसे हमेशा बन्नो ही बुलातीं थीं).....शादी भी इतनी जल्दी हुई थी, सोचा था तेरा मुन्ना सबसे पहले गोदी में खिलाउंगी पर तू तो पति प्रेम में ऐसी डूबी हुई है कि न आगा सोचती है न पीछा, जैसे नाच नचाता है तेरा दुलहा बस नाचती रहती है, अरे उमर निकल जाएगी तो लाख चाहेगी तो भी नहीं होगा. चल छोड़ तुझे तो समझाना ही बेकार है.’’
सचमुच माँ उससे कह-कह कर थक चुकी थीं. हर बार वन्दना टका सा जवाब दे देती, ‘‘हो जाएगा न क्यों पीछे पड़ी रहती हो.’
पर सच्चाई यह थी कि अरनव चाहता ही नही था कि कोई तीसरा उनकी दुनिया में आये. इस विषय को जब भी वन्दना ने उठाना चाहा, वह कभी हंसी में उड़ा देता, कभी टाल जाता, तो कभी इतना चिड़चिड़ा हो जाता कि वन्दना समझ ही न पाती कि उसका कसूर क्या है. उस रात वन्दना ने फिर फोन मिलाया और टका सा जवाब सुन सन्न रह गई,,,,,,,
वन्दना का अपराध था कि उसने संतान पैदा करने की इच्छा व्यक्त की थी, वह भी शादी के 15 सालों के बाद!
फोन रखकर वह सीधे बाथरूम में घुस गई.... शाॅवर की तेज धार वन्दना के शरीर को भले ही ठंडक पहुंचा रही थी, लेकिन उसका मन कहीं और था. उनके बीच हुई सारी बातें उसका कलेजा छलनी किये दे रहीं थी. अरनव ने कहा था,--‘‘वन्दना यू सिली वुमन ! इस जिन्दगी से कितनी खुश थी तुम.........पैसा, स्टेटस, लाइफ यही तो चाहा था हमने मिलकर, फिर आज यह बगावत क्यों? नहीं बरदाश्त कर सकता मैं, नहीं चाहिए बच्चा मुझे ......कतई नहीं......... तुम चाहो तो मुझे छोड़ सकती हो.’’
अटक-अटक कर भर्रायी हुई आवाज में वह बोली,--‘‘जान !....... .सुनो तो........प्लीज.......समझो मुझे...वह मेरा बचपन था..........मैं........मैं......’’ वन्दना दुखी व निराश जितनी थी उससे कहीं ज्यादा हतप्रत थी, पिछले पंद्रह सालों के प्रेम, विश्वास, समर्पण की डोर इतनी कच्ची निकली कि एक छोटा सा धक्का भी नहीं झेल पाई. बेचारगी के एहसास में आँखों से गंगा जमुना बह निकली.
शाॅवर की ठण्डी धार भी उसके मन की टीस को नहीं बुझा पा रही दिन बीतने लगे, एक अजीब सी खामोशी का साया पूरे घर पर मंडराने लगा था. सभी एक दूसरे से बहुत कुछ कहना चाहते थे, परंतु हिम्मत न जुटा पाते थे. हँसना-बोलना केवल प्रफुल्ल तक सीमित था. घर के अन्य सदस्य सीने पर भारी बोझ लिए कशमकश मे जी रहे थे....
स्वाभाविक रूप से अरनव दोषी माना जा चुका था, और वन्दना सहानुभूति की हकदार. फिर भी शर्मा जी यानि पापा ने अरनव को विश्वास में लेकर अंतरंग बात करने की सोची. कई दिनों तब अपने शब्दों को विवेक के तराजू पर तौलने के बाद एक शाम उन्होंने फोन मिलाया.
‘‘हेलो!’’ अरनव की अलसाई सी आवाज आई, कुछ क्षण की चुप्पी के बाद वे बोले,
‘‘अरनव इंडिया से पापा बोल रहा हूँ, और यह क्या सुन रहा हूँ मैं? क्या इसी दिन के लिये मैं ने अपनी फूल सी बच्ची तुमसे ब्याही थी?’’ शर्मा जी बिना रुके एक सांस में बोल गए. उधर से आवाज आई,
‘‘नमस्ते पापा !’’ अरनव की आवाज में पहले जैसी ही मिठास, व आदर का भाव था. वह बोला, ‘‘पापा आपकी फूल सी बच्ची को मैंने हमेशा फूल सा ही रखा था, और हमेशा रखना चाहता हूँ, वही न रहना चाहे तो मैं क्या कर सकता हूँ‘‘
प्रतिउत्तर में शर्मा जी ने तनिक सख्त आवाज में कहा,--‘‘माँ बनने की, वन्दना की इच्छा, वाजिब है अरनव..... बेटा! आखिर तुम क्यों नहीं चाहते? और यह क्या तरीका है, फोन काट देते हो, ठीक से बात क्यों नहीं करते उससे...... वन्दना बहुत दुःखी है.‘‘
तपाक से उधर से आवाज आई, --‘‘नो पापा! नो! यू काण्ट ब्लेम फाॅर व्हाट हैपेन! शादी के पहले दिन से वन्दना को पता था कि मेरी मर्जी क्या है. यह अमेरिका है पापा! यहाँ लोग अपने लिए जीते हैं....अपना कैरियर बनाते हैं......बच्चे.....यानि टू मच कमिटमेण्ट.....एण्ड टू मच बाॅदरेशन.......आई हेट किड्स.
फाॅर व्हाट वी वाण्ट किड्स पापा?.........क्या आपको पता है कि जब मेरे पापा का ट्रेन एक्सीडेण्ट हुआ था, वे झटका खाकर पटरी पर गिर पड़े थे और कट कर दम तोड़ दिया था. तब क्या मैं उनके काम आ सका था. और माँ.....माँ.......जब कैंसर से कराह-कराह कर इंडिया के अस्पताल में दम तोड़ रही थीं, तब भी मैं उसके सिराहने नहीं था.....नहीं पहुंच पाया था मैं.......मेरे अस्तित्व ने उन्हें दुख ही ज्यादा दिया है पापा.......नहीं चाहता, पापा..... .. मैं, न दुख देना, न दुख पाना........पापा मेरा घर सिर्फ मेरा नहीं वन्दना का भी है, वह जब चाहे आ सकती है. घर की एक चाभी हमेशा उसके पास रहती है.’’
अरनव का गला रूंधने लगा था, वह फोन रखने ही वाला था कि पापा ने जल्दी से कहा, --‘‘अरनव यह कैसा पागलपन है बेटा! सभी यदि ऐसा सोचने लगेंगे तो दुनिया कैसे चलेगी.’’
दूसरी तरफ से तटस्थ से कठोर शब्द गूंजे,--‘‘पापा ! दुनिया के लिए मैं क्यों सोचूँ, मैं अमेरिका में और अपनी जिन्दगी से खुश हूँ... मैं अपनी जिन्दगी में किसी का भी इनटर्फियरेंस बरदाश्त नहीं कर सकता. आपका भी नहीं........आई एम साॅरी, मुझे माफ कर दीजिए.......... फिर काफी देर की खामोशी के बाद बोझिल सी आवाज आई, वह भी रूक-रूक कर......पापा यदि मेरा फैसला मंजूर नहीं है तो मैं वन्दना को आजाद करता हूँ, पत्नि-धर्म से मुक्त करता हूँ....हमेशा के लिए.........’’
शर्मा जी लगभग चीखे, ‘‘नहीं अरनव........तुम ऐसा नहीं कर सकते. अमेरिका में बस गए हो.........तो क्या अपने संस्कार भूल गए....... मेरी बेटी की वफादारी और समर्पण का यह सिला दोगे उसे........नहीं अरनव.......’’
‘‘शिट....’’ जोर से उत्तर मिला, और फोन कट गया.......
वन्दना सब सुन रही थी......उसने पापा को सहारा देकर सम्भाला.... निराशा में बुदबुदायी.........वह अमेरिका है पापा, वहाँ सेंटीमेंटेंस के लिऐ कोई जगह नहीं होती...................
फिर भी वह एक प्रयास और करना चाहती थीं.......एक बार सामने रह कर प्यार, दुलार, तकरार, सबसे मनाना चाहती थी अरनव को........वह अमेरिका लौट गई अरनव के पास........लेकिन.........
आॅटो रिक्शा से वन्दना को उतरते देख, बिना किसी पूर्व सूचना के, बिना सामान के, सिर्फ कंधे से झूलते बैग को देखकर माँ का कलेजा धक से रह गया. अभी महीना भी न बीता था वन्दना को अमरीका वापस गये. हल्दी सा पीला चेहरा, न साज न सिंगार......... वन्दना ने एक नजर माँ को देखा और लगभग भागते हुए अन्दर चली गई उसी कमरे में जहाँ कविता प्रफुल्ल को दूध पिला रही थी. उस एक नजर में क्या था, माँ समझ न सकी, पीछे-पीछे आई.
सभी अवाक थे, किसी के मुँह से एक बोल भी नही निकल रहा था. सभी एक दूसरे का चेहरा पढ़ने की कोशिश कर रहे थे. अमरीका से इस तरह किसी को वापस आते न सुना था न सोचा था. वन्दना ने एक लम्बी चुप्पी ओढ़ रखी थी.......
.‘‘कुछ कहेगी भी, क्या हुआ बन्नो? कहाँ है तेरा सामान? और अरनव? अभी तो तुझे अमरीका गये महीना ही हुआ है, ऐसा भी क्या काम आ पड़ा जो बिना बताए आ गई?’’ फूट पड़ी वन्दना, --
‘‘कुछ काम हो, या तुम बुलाओ, तभी आ सकती हूँ मैं अपने घर.....अपने देश..............क्या मैं अपनी मर्जी से नहीं आ सकती हूँ........?’’
जब से शादी हुई थी, वन्दना इसी तरह दो टूक जवाब देने लगी थी. लाड़ली इतनी थी घर भर की, कि कभी किसी ने भी उसकी बातों का बुरा नहीं माना....परंतु आज तेज बिजली की कौंध के साथ घने काले बादलों का साया भी मंडरा रहा था. जरूर कोई तूफान आने वाला है.
‘‘सुनना ही चाहती हो माँ, तो सुन लो, मैं अब कभी भी वापस न जाने के लिये आई हूँ. छोड़ आई हूँ, मैं वह देश, वह घर, नौकरी, पैसा, जेवर और अरनव को भी. धोखा था माँ......सब कुछ धोखा था. कठपुतली बन कर नहीं जी सकती मैं, बस अब और नहीं........’’ वन्दना पूरे वेग से उठी और बाथरूम में जाकर जोर से दरवाजा बन्द कर लिया..............
पानी की ठंडी धार के साथ मन की सारी कमजोरी बहने लगी, अतीत धुंधलाने लगा, जब मानस पटल पर केवल अरनव की परछाई शेष रह गई तो उसकी आँखों से आँसू का आखिरी कतरा भी धुल गया. आज वह अपने मन से कपड़े पहनेगी, नहीं लगानी लिपस्टिक, ना ही करना है श्रृंगार, नहीं पहनने टाइट कपड़े और ना ही मुस्कुराना जरूरी है आज.......आज उसका अपना है. ......बिल्कुल अपना........बाथरूम से बाहर निकली तो यह कोई नई वन्दना थी, लौह इरादों वाली, मजबूत वन्दना, जिसने अपना भविष्य निश्चित कर लिया था.... छोटे-छोटे प्यारे-प्यारे बच्चों के स्कूल में पढ़ाने का दृढ़-संकल्प ले लिया था उसने............
- बस -
सुधा गोयल “नवीन”