Sunday 9 March 2014

गुलमोहर खिला है ( laghu Katha )

गुलमोहर खिला है

दो साल पहले जब वह अमरीका अपने बेटे के पास रहने गई थी, हमेशा के लिए,.. तब भी इतनी ही खुश, उत्साहित और उमंग से भरी हुई थी जितनी आज है, जब वह अपने घर, अपने शहर, अपने देश हमेशा के लिये…. वापस आने की तैयारी कर रही  है .......
तब बच्चों का मोह था, पोते-पोतियों के साथ उनका बचपन जीने की चाह थी, तिलिस्म के सामान सुन्दर व् चौंका देने वाले शहरों  को घूमने का लालच था..... सुना  था वहाँ इतनी सफ़ाई होती है कि सड़क पर गिरी हुई चीज उठाकर मुँह में रखने में भी हिचक महसूस न हो. इतना अविश्वसनीय लगा था कि स्वयं जाकर देखने का मन हुआ, उस नए परिवेश को जीने की अभिलाषा जागी. अपने देश की धूल भारी सड़कें, सडकों के किनारे फैली गंदगी, कचडे के ठेर और दुर्गन्ध से उसका पीछा छूट जाएगा, सोचकर अधरों पर हल्की मुस्कान आ गई थी उस ऱोज .....
उसके जिगर के टुकड़े उसके दोनों बेटे और बेटियों के सामान प्यार करने वाली बहुओं का आग्रह, पोते-पोतियों की भोली सूरत, उनकी बाल-सुलभ क्रीड़ायें, कम्प्यूटर पर देखती तो,  बच्चों को गोद में भरकर चूम लेने के लिये उसे बेचैन कर देती थीं … यही कारण था  कि वह इतनी  खुश, उत्साहित और उमंग से भरी हुई थी जब वह अमरीका अपने बेटे के पास रहने गई थी, हमेशा के लिये ........
ग्रीन-कार्ड आदि बनवाने की जो भी औपचारिकताएं पूरी करनी थीं बच्चों ने सहजता पूर्वक निपटा लिया था. पति ने पूछा था ,” आर यूं श्योर .... “ और उसने जबाब में कहा था, “अपने बच्चों के पास रहने जा रहे हैं हम .  इस उम्र में सारी दुनिया यही करती है . पाल-पोसकर बच्चों को काबिल बनाया है, क्या इसलिए कि बुढापे में अकेले रहे? फिर हमारे बच्चे कितना मानते हैं हमे. हमारी फ़िक्र रहती है उन्हे .... फिर आपको शक क्यों?”
उसे याद है उसके पति मुस्कुराए थे, और हमेशा की तरह उसके निर्णय को अपना धर्म समझ कर निबाहने को तत्पर हो गए थे. उसने एक दलील और पेश की थी कि यदि वे लोग साथ रहेंगे तो बच्चे मानसिक रूप से निश्चिन्त हो कर अपने-अपने काम में मन लगा सकेंगे ...अन्यथा उन्हीं की चिंता लगी रहती है.  फिर पोते पोतियों को भारतीय संस्कृति से, भाषा से भी तो परिचित कराना है.
दो साल…. पूरे दो साल .... वह अपने मन को यही सब समझाती रही…… मुरझाये मन पर दलीलों के मरहम लगाती रही, दीदी की चिट्ठियों के जबाब में लिखती, ‘’सब कुछ बहुत सुन्दर है, पर बहुत सन्नाटा है  दीदी, अपने बागीचे के शहतूत पर सुबह सबेरे अठखेलियाँ करतीं  रंग-बिरंगी चिड़ियाँ और उनका चहचहाना बहुत याद आता है, झींगुर और मेढक की आवाज का संगीत कहीं सुनाई नहीं देता. सीधी-सपाट सडक पर मदमस्त चाल से गौवों का झुण्ड स्वच्छंदता से चरता हुआ भी नहीं दिखता. सारे पेड अजनबी लगते हैं. मोटे तने वाले पेड़ों को देखती हूँ तो ऐसा लगता है जैसे अभी कही से सजी-संवरी कुलवधुएं हाथों में दूध का कटोरा लिए साँपों का बिल ढूँढती आयेंगी और पेड के तनें की पूजा करने लगेंगी .  दीदी आपको याद है एक बार मधुमक्खी ने घर की बाल्कनी से लटकता हुआ छत्ता बनाना शुरू कर दिया था .  बच्चों को मधुमक्खी के काट लेने के डर से सबने तोड़ डालने की सलाह दी थी, पर अम्मा की दलील थी किसी का घर नहीं तोड़ते, पाप लगता है . छेडोगे नहीं तो डंक नहीं मारेगी. पशु-पक्षी कीड़े-मकोड़ों के प्रति भी इतनी  संवेदना केवल अपने देश में ही है दीदी…. ”
प्रत्यक्ष में कोई भी कारण न होते हुये वह उदास रहने लगी थी . सभी पूछते परन्तु वह क्या बताये, किसी से भी तो कोई शिकायत नहीं है उसे ..... शायद उसके मन के हर कोने में झांकने वाले पति ने भाँप लिया था.
दीदी की अगली चिट्ठी आई और पढ़ते समय उसकी आँखें भीग गई तब बिना किसी भूमिका के पति ने कहा था, ‘’वापस अपने घर चलोगी?........ क्या लिखा है दीदी ने?”
अतिरिक्त कृतज्ञता, स्नेह, व् भावावेश में आकर वह पति से लिपट गई थी. बोली,” मेरा गुलमोहर मुझे बुला रहा है…. दीदी ने लिखा है, भाभी लौट आओ… गुलमोहर खिला है…. उसके फूलों का रंग वैसा चटक नहीं है जैसा आप जब यहाँ थी तब हुआ करता था. शायद आपकी याद में फीका पड़ गया है...... आदित्य… मुझे ले चलिए ..मेरा गुलमोहर मुझे बुला रहा है…. “
सामान बांधते हुए पिछले कुछ दिनों की बातें अदिति को मथ रहीं थी. आज वह खुश थी… बहुत खुश।।

सुधा गोयल “नवीन”




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