Friday 30 August 2013

लघु कथा

                                               आत्महत्या - एक मज़ाक




आत्महत्या -- एक भयावना शब्द, एक अपराध, एक अनैतिक आचरण।
यह कहना जितना सच है उतना ही बड़ा  सच यह भी है कि हर इंसान के मन के किसी अँधेरे कोने में यह भावना कुंडली मारे विषधर सर्प की भांति सुप्तावस्था में रहती ही है. अधिकतर जन-मानस में यह सर्प जीवन-पर्यन्त सोया ही रहता है. निर्जीव बना रहता है… कहते हैं कि यह सर्प बेहद डरपोक होता है. ऐसे लोगों के मन  में फन उठाने से कतराता है जो दृढ़ चरित्र वाले, आत्मविश्वासी, कर्मठ और निडर होते हैं .. वहीं दूसरी ओर पराजित होने का भय, मंजिल तक न पहुँच पाने की चिंता, शारीरिक अक्षमता, आत्मविश्वास की कमी वाले लोगों को यह सर्प  डंक  मारता है और अपना प्रभुत्व दिखाने लगता है. फलस्वरूप ऐसे लोग कभी तो जीवन से भागने लगते हैं और कभी कछुए की तरह अपने ही खोल में सिमट कर रह जाते हैं …....  
आत्महत्या के बहाने तलाशने लगते हैं ...
आत्महत्या के कारणों में यदि  गरीबी, भुखमरी, असाध्य रोग आदि आते हैं तो लोग च….च…च…तो अवश्य  करते हैं पर उनकी उँगली के इशारे पर वह व्यक्ति न होकर कभी सरकार  तो कभी व्यवस्था होती है, वह व्यक्ति नहीं …...
आजकल सम्मान के नाम पर होने वाली हत्याओं को बडी आसानी से आत्महत्या का जामा पहना दिया जाता है. लेकिन …....  
चिंता का विषय यह है कि आज की युवा पीढ़ी को आत्महत्या का  रास्ता सबसे आसान लगने लगा है. हर दिन अखबारों की सुर्ख़ियों में  आत्महत्या का जिक्र रहता है. यदि आप प्रतिशत निकालें तो स्कूल-कॉलेज के लडके-लड़कियाँ ही अधिक होते हैं उसके बाद नंबर आता है जवान स्त्रियों और शादी-शुदा औरतों का…. आज यह समस्या सुरसा की तरह मुँह फैला चुकी है  …. निगलती ...और निगलती ही जा रही है.
कारण ????
चिकित्सक…. मनोचिकित्सक…… परिवार के लोग…. सामाजिक संस्था ......जितने मुँह उतनी बातें  .
कोई परिवार के माहौल को, व्यवहार को  और आचरण को दोषी ठहराता है तो कोई समाज में आ रही गिरावट को, कोई आधुनिकता के रंग में रंग जाने की होड़ को दोषी मानता है तो कोई विदेशी संस्कृति के अन्धानुकरण की प्रवृति को……  
व्यक्ति की स्वयं से या परिवार की व्यक्ति से अपेक्षाएं ...संभावनाएं ... उम्मीदें भी कहीं न कहीं आत्महत्या के कारणों की जिम्मेदार होती हैं ...माँ - बाप ने पेट काटकर, घर गिरवी रखकर, या जमीन-जायदाद बेचकर बेटे या बेटी का एडमिशन इंजीनियरिंग कॉलेज में करवाया ... बच्चा आभारी महसूस करता है, जी जान से कोशिश भी करता है, वह जितना हाथ बढाता है सफलता खिसकती जाती है, वह  महसूस करता है, ..पीडा, तनाव, निराशा..... जो  उसे खीच ले जाती है आत्महत्या के आगोश में .......
जीवन को मानदंडों की कसौटी पर रखकर परखने की स्पर्धा में हम जीवन जीना ही जैसे भूल चुके हैं . जीवन को पूर्णता से जीने का ध्येय महत्वाकांक्षाओं की ज्वाला में होम हो जाता है.  समाज-परिवार की  उम्मीदों, अपनी क्षमता न पहचानकर अन्धानुकरण की प्रवृति के विशालकाय पत्थरों के कारण  दरिया के सामान जीवन का स्वाभाविक बहाव, स्वच्छंदता, गति, उछाल, उन्मुक्तता बाधित हो जाती हैं .. नतीजा होता है,  कभी-कभी अस्वाभाविक अंत ...
सबसे आगे निकल जाने की होड़ में, भौतिक सुख-संपदा, पद-प्रतिष्ठा  की चाहत में,  हर आदमी भाग रहा है, एक कभी न ख़त्म होने वाली रेस में शामिल है आज की पीढ़ी …..किसी के पास किसी के लिए समय नहीं है..... एक-दूसरे को सुनने-समझने का समय नहीं है . मित्र-संबंधी की तो बात ही छोड दीजिये माँ-बाप भी उसी रेस के खिलाड़ी बन गए हैं .. भीड़ में भी हर आदमी अकेलापन महसूस करता है और अकेलेपन का दंश बिच्छू के दंश से भी ज्यादा भयानक होता है, जानलेवा होता है.




लेकिन आज यह शब्द एक मजाक बनकर रह गया है। पापा ने डांटा तो फांसी लगा ली, स्कूटी खरीदकर देने से मना कर दिया, फांसी लगा ली, मित्र के घर देर रात जाने से रोका तो फांसी लगा ली। गर्ल फ्रैंड या बॉय फ्रेंड ने बात नहीं किया तो फांसी लगा ली। यह मज़ाक नहीं तो और क्या है।   
एक चौथी कक्षा का विद्यार्थी स्कूल की पांचवीं मंजिल से कूद कर इसलिए जान दे देता है कि उसकी सहपाठिनी ने कक्षा में उसके साथ एक ही बेंच पर बैठने से मना कर दिया था. एक मेट्रो शहर के अंग्रेजी माध्यम स्कूल की आठवी कक्षा का  एक लड़का और उसकी गर्ल फ्रैंड पिकनिक पर जाते हैं और सबकी नजरें बचाकर पानी में खेलने के बहाने उतरते हैं और उसी में समा जाते हैं, क्योंकि वे बालिग़ नहीं हुए हैं और समाज उनको शादी करने की इजाजत नही देता और वे एक दूसरे से एक पल भी जुदा नहीं रहना चाहते. कितना नाटकीय और फ़िल्मी लगता है न यह वाकया……
आज की नई पीढ़ी, देश के भावी कर्णधार, भारत के सपूत, भारत के गौरव …..... क्या यही लोग  बनेंगे? ??
क्या बात सचमुच इतनी साधारण है, या इसके पीछे कोई बडा मनोवैज्ञानिक कारण छिपा है,  सामाजिक व्यवस्था का दोष छिपा है, आधुनिकता की दौड़ में पिछड़ जाने का डर छिपा है या कुछ और।
दोषी कौन??



सुधा गोयल “नवीन”









No comments:

Post a Comment