Sunday 5 February 2017

चार-कन्या --तसलीमा नसरीन---समीक्षा --

समीक्षा -- चार-कन्या --तसलीमा नसरीन पुस्तक मेले में घूमते हुए जब मेरी दृष्टि बांग्लादेशी कथाकार तसलीमा नसरीन के उपन्यास 'चार-कन्या' के हिन्दी अनुवाद पर पड़ी तब मैं स्वयं को न रोक सकी और झटपट खरीद लिया। अपने देश से निर्वासित, अति विवादित लेखिका के कम चर्चित उपन्यास को एक बार पढ़ना शुरू किया तो आद्योपांत पढ़ती ही चली गई। परम्परागत-रूढ़िवादी परिवारों में पली-बढ़ी लड़कियों के कन्धों पर सारी नैतिकता, सारी मान-मर्यादाओं को लाद दिया जाता है। सारे परिवार को खुश रखना, पति की आज्ञा का अक्षरशः पालन करना, अपनी इच्छाओं-आशाओं, महत्वाकांक्षाओं को ताक पर रखकर मूक कठपुतली की तरह हँसते हुए नाचने वाली को स्त्री आदर्श और 'अच्छी' बहु-बेटी दर्ज़ा देने वाले भूल जाते हैं कि नारी कोई काठ की बनी नहीं है। उसके सीने में भी एक दिल धड़कता है। उसकी भी सोच है, अरमान है। वह सिर्फ शरीर या मांस का लोथड़ा नहीं है। 'लज्जा' जैसी चर्चित कृति की लेखिका तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास 'चार-कन्या स्त्री-विमर्श की कई खिड़कियां खोलता है, जिससे आती बयार से पाठक अछूता नहीं रह सकता। यमुना, नूपुर, शीला और झूमर चार बहनों की कहानी को लेखिका ने चार अध्यायों में बाँटा है-- दूसरा पक्ष, निमंत्रण, प्रतिशोध और भँवरे जाकर कहना। दूसरा पक्ष पत्रात्मक शैली में है। ब्रह्मपल्ली मैमनसिंह से नूपुर अपनी दीदी यमुना को बुबू का संबोधन देकर पत्र लिखती है। बातों ही बातों में जीवन की बड़ी-बड़ी सच्चाइयां उजागर हो जाती है। यमुना में अपने अधिकार-बोध की तीव्र जागरुकता है। उसे काफी कुछ भुगतना पड़ता है। समाज के उलटे-सीधे नियम उसे तोड़ कर रख देते हैं। स्त्री हमेशा शक के कटघरे में क्यों खड़ी कर दी जाती है? कोई भी रिश्ता स्वार्थ-रहित क्यों नहीं हो सकता? हमेशा स्त्री से ही बलिदान की आशा क्यों की जाती है? उसके काम को प्राथमिकता कब दी जायेगी? क्या हर बार किसी मुकाम पर पहुंचने के लिए स्त्री को रिश्तों के दलदल से होकर गुज़रना पड़ेगा? इन उत्तर खोजने के लिए लेखिका ने स्त्री-मन की गहराइयों में है। लेखिका की संवेदनशीलता/भावुकता की पराकाष्ठा देखकर आश्चर्य है कि जिसने स्वयं न भोगा हो, वह इतनी अंतरंग कोमल-कठोर भावनायें इतनी सहजता से कैसे व्यक्त कर सकता है सकता है। तसलीमा जी भले ही शरीर की डॉक्टर रहीं हों, परंतु मन की गहराइयों में उतर कर अछूते पहलुओं जिस अधिकार और विश्वास से उनकी लेखनी चली है, उसका कोई सानी नहीं है। नारी का उत्पीड़न कोई नयी बात नहीं है। निर्भया हो या शीला, नारी हमेशा ठगी जाती रही। सच्चे प्रेम की अभिलाषिनी शीला के सपनों का महल ताश के पत्तों के घर सा ढह जाता है जब उसका प्रेमी ही सौदागर निकलता है। निमंत्रण के बहाने शीला के साथ जो दुर्व्यवहार होता है वह छोटी-छोटी घटनायें लेखिका के शब्द-कौशल और शब्द-प्रवाह की संजीवनी से जीवंत हो उठी हैं। तसलीमा जी कहती हैं, "मैं ईश्वर में विश्वास नहीं करती, न ही धर्म, झूठ, अंधश्रद्धा, राष्ट्रवाद, हिंसा में। मैं मानवता, अधिकार, आज़ादी, प्रेम, सद्भावना में विश्वास करती हूँ।" ऐसा धर्म जो आज़ादी नहीं दे सकता, प्रेम का गला घोंट देता हो, अंध-श्रद्धा और हिंसा में विश्वास करता हो, तसलीमा जी को स्वीकार नहीं। प्रेम ईश्वर का वरदान है, और नारी ईश्वर की श्रेष्ठतम रचना। नारी कोमल हो सकती है पर कमज़ोर नहीं। वह वसुधा सामान सहनशील तो है, पर सीमा पार कर आजमाने की कोशिश की तो प्रतिशोध की ज्वाला से ऐसे जलाती है कि जलने वाला उफ़ भी नहीं कर पाता। झूमर ने हारुन से बदला भी ले लिया और अपने सतीत्व पर आँच भी न आने दी। स्त्री-मन की गहराइयों में उतर कर लेखिका ने उसके अवसाद,पीड़ा-दुखः, स्वाभिमान, आत्मविश्वास, प्रेम, समर्पण सभी संवेगों को दुलराया, पुचकारा और सहलाया है। परिस्थितियां चाहे जितनी विकट हों, सारी दुनिया के साथ-साथ चाहे माँ-बाप भी विपरीत हो जाएँ, मानसिक-शारीरिक अत्याचार सहने पड़े, तब भी तसलीमा जी की नायिका हार नहीं मानती। भँवरे जाकर कहना में हीरा (नूपुर) अपनी नारकीय शादी-शुदा ज़िंदगी से बगावत करती है, अश्लील-अनर्गल इलज़ाम को अनदेखा कर भाग जाती है, मनजू चाचा और पापड़ी की मदद से एक अदद छोटी सी नौकरी और घर पाने में सफल हो जाती है। फिर उसे कैसर के रूप में अपनी चाहत और परम आनंद भी मिल जाता है। सुधा गोयल ‘नवीन’ जमशेदपुर 09334040697

No comments:

Post a Comment