Monday 18 May 2020

कोरोना और सकारात्मकता

कोरोना और सकारात्मकता जीवन है तो सुख-दुःख, आशा-निराशा, ऊँच-नीच, जय-पराजय भी है. सुख-दुःख के घर्षण से ही ज्योति उत्पन्न होती है. जीवन संघर्षों का पर्याय है. कभी महारोगों-महामारी का संघर्ष तो कभी विचारों का, कभी आर्थिक तो कभी पारिवारिक संघर्ष झेलने होते हैं . प्रकृति का नियम है कि कोई भी स्थिति ज्यादा दिन नहीं टिकती. अर्थात परिवर्तन शाश्वत सत्य है. और जीने की इच्छा या जिजीविषा कमज़ोर को बलशाली, अपंग को सामर्थ्यवान और बुद्धिहीन को चाणक्य बना देती है . इतना सब जानते हुए भी विपरीत या विकट परिस्थितियों में लोग धैर्य खो बैठते हैं और निराशा के जाल में फंस कर नकारात्मकता जन्य अवसाद से घिर जाते हैं . आज के माहौल में भी कुछ ऐसा हो रहा है. इतिहास साक्षी है, महामारियां जब भी आईं हैं , उथल-पुथल हुआ है, परेशानियां, मुश्किलें बढ़ी हैं. जब भी महामारियां फैलती हैं जंग की स्थिति आ जाती है. तब हमारा अवलोकन शुरू होता है. कहाँ गलती हुई, क्यों यह स्थिति आई, और कैसे इस स्थिति से निपटा जाये. हमारे प्रकृतिविदों का मानना है कि मनुष्य इतना स्वेच्छाचारी हो गया है कि जिस मूलभूत प्रकृति से उसका अस्तित्व है वह उसी के साथ खिलवाड़ करने लगा है. प्रकृति के साथ खिलवाड़,उसका दोहन और स्वयं को सर्वेसर्वा समझने की भूल से कभी-कभी ऎसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं. प्रकृति के ऊपर आधिपत्य स्थापित करने का हमारा प्रयास आत्मघाती है. हम यह भूल गए कि हमारा अस्तित्व प्रकृति से है, प्रकृति का हमसे नहीं. वह चाहे तो सम्पूर्ण आर्थिक समृद्धि व विकास को एक झटके से सूक्ष्म जीवों द्वारा मिटा सकती है. कितने आश्चर्य की बात है न.. कि हम जंग की बात कर रहे हैं और हथियार की चर्चा कहीं भी नहीं है... न बन्दूक, न गन, न तीर, न तलवार... हमारी जंग है एक विदेशी विषाणु से, जिसे कोरोना वायरस कहा जा रहा है, और जिसने ऊधम मचा रखा है. कोई एक राज्य या देश नहीं पूरा का पूरा विश्व जिसके आतंक के घेरे में है. यह विषाणु इतना ताकतवर है कि फ्रांस, इटली, अमरीका जैसे ताकतवर देश इसका मुकाबला नहीं कर पा रहे हैं. इन देशों में हजारों-लाखों की संख्या में लोग इसकी चपेट में यदि आ जाते हैं तो उनका राम नाम सत्य हो जाता है. सारी व्यवस्था - आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक ठप्प हो कर रह गई है. पूरा विश्व इसकी चपेट में आ चुका है .. इस महामारी ने हमें सोचने पर विवश कर दिया है कि हम कहीं न कहीं गलत थे, गलत हैं.... कुछ लोगों का मानना है कि यह विषाणु ईश्वर प्रदत्त नहीं है. विदेश के किसी अनुसंधान-जनित प्रक्रिया का फल है. मनुष्य तर ह-तरह के हथियार बनाकर, एक दूसरे का विनाश करके अपनी बहादुरी सिद्ध करता रहा है. इससे भी उसका मन नहीं भरा तो वह भगवान बन बैठा और एक ऐसा जीव बना डाला जो स्वयं उसकी जान का दुश्मन हो गया है. आज यह अदृश्य कोरोना विषाणु अट्टहास कर रहा है और विश्व इसके चंगुल से निकलने के लिए छटपटा रहा है .... कोई भी जंग चाहे वह कतनी भी विनाशकारी हो, भयंकर हो, एक न एक दिन समाप्त हो ही जाती है. कोरोना जनित जंग भी समाप्त हो ही जायेगी, या फिर हमें उसका बुद्धिमानी से मुकाबला करना आ जाएगा. आज विश्व स्तर पर भारत की चर्चा हो रही है. भारत की नीतियों, विश्वास और कदमों का गुणगान हो रहा है. इस परिस्थिति का सकारात्मक पहलु यह है कि कोरोना काल में एक बार फिर ध्रुव तारे समेत तमाम गृह-नक्षत्र आसानी से देखे जा रहे हैं. दशकों से नदियों को साफ़ करने की विफल मुहिम बिना किसी प्रयास के रंग लाती दिख रही है. सारी गतिविधियाँ ठप्प हैं तो प्रदूषण से राहत मिलती दिख रही है. ये हालात कोरोना से लड़ने के अनुकूल बन रहे हैं. प्रकृतिविदों का मानना है कि प्रकृति अपना ईलाज कर रही है. जब यह स्वयं को स्वस्थ कर लेगी तो इंसानों को भी स्वस्थ रखने में सक्षम होगी. एक छोटी सी बच्ची ने अपनी स्कूल की कॉपी में एक चिट्ठी लिखी..... मोदी जी मैं आठ साल की मुनिया हूँ. मुझे कोई कुछ नहीं बताता क्योंकि मैं बहुत छोटी हूँ और उनके विचार से मुझमें इतनी अक्ल नहीं है कि मैं इन लोगों की बातें समझ सकूं. शायद ये लोग ठीक कहते हैं. आजकल सभी लोग लॉक-डाउन-लॉक-डाउन की बातें करते हैं और घर में ही रहते हैं ..मुझे बहुत अच्छा लगता है... मम्मी मुझे अकेला छोड़कर ऑफिस नहीं जातीं. मेरा स्कूल भी बंद है..मैं भैया के साथ खूब खेलती हूँ.. सबसे अच्छी बात है कि पापा जो रोज़-रोज़ अपने दोस्तों को घर बुलाकर शराब पीते और मम्मी के साथ गाली-गलौज करते थे, वह भी बंद है.. मम्मी कामवाली बाइयों पर खूब गुस्सा करती थीं, अब वे लोग आती ही नहीं तो मम्मी बढ़िया-बढ़िया मेरी पसंद का खाना बनातीं हैं.. मेरे गुस्सैल पापा जब किचन में मम्मी की मदद करते हैं तो मुझे बहुत अच्छा लगता है. कल पापा मम्मी से कह रहे थे, अच्छा हुआ इस लॉक-डाउन ने मेरी पीने की बुरी लत छुड़वा दी तो मम्मी ने हँस कर पापा को गले लगा लिया. मुझे मम्मी-पापा ऐसे ही चाहिये इसलिए मोदी जी मेरी आपसे प्रार्थना है कि इस लॉक-डाउन को ढेर-ढेर सारे दिन चलने दीजिएगा. इसके बाद उस छोटी सी बच्ची ने अपना हंसता हुआ चेहरा बनाया था.... जैसे अन्धकार के बाद उजाला, गर्मी के बाद सर्दी और तूफ़ान के बाद शांति प्राकृतिक सत्य है वैसे ही कोई भी प्रकोप दीर्घजीवी नहीं होता. वह आया है तो चला भी जाएगा. ईश्वर हमारा इम्तहान लेते हैं और उस इम्तहान में वे ही सफल होते हैं जिनकी सोच सकारात्मक होती है, क्योकि वे ही ऊर्जा से भरे हुए परिस्थिति का मुकाबला कर पाते हैं. हमारी विलासी जीवन शैली और प्राकृतिक संसाधनों का दोहन ही कोरोना के साइड-इफेक्ट के रूप में दिख रहा है. हमने खाद्य-अखाद्य का फर्क मिटा दिया है, चमगादड़ और पेंगोलिन जैसे जीवों के भक्षण वाली तामसी प्रवृति ने कोरोना के रूप में पृथ्वी के साथ इंसानी सभ्यता का भी बेड़ा गर्क किया है. क्या पता हमें सबक सिखाने या हमें हमारी औकात दिखाने आया है यह कोरोना वायरस प्रकोप... असंख्य चुनौतियों के साथ इस परिस्थिति ने इंसानी जीवन को व्यवस्थित करने का काम भी किया है. मनुष्य के कार्य-व्यवहार, आचार-विचार में अकल्पनीय एवं आद्योपांत परिवर्तन परिलक्षित हो रहा है. शुद्ध-सात्विक घर का खाना हमारी प्राथमिकता हो गई है, कहीं बाहर से आकर हाथ-पैर साबुन से धोना, हाथ मिलाने या गले लगाने की जगह हाथ जोड़कर अभिवादन करना, योग-प्राणायाम आदि क्रियाओं द्वारा मन व् शरीर स्वस्थ रखने की ओर ध्यान जा रहा है. एक तरह से कहिये कि हम अपनी सभ्यता-संस्कृति से जुड़ रहे हैं. किसी महामारी का चिकित्सीय पहलु यह भी होता है कि वह हमारे शरीर की प्रतिरोधक क्षमता विकसित करती है. अर्थात कुछ समय बाद वायरस हमला करता है लेकिन मनुष्य पर उसका असर नहीं होता. जो आज महामारी है वह कल बीमारी हो जायेगी, वैक्सीन विकसित हो जायगी. सकारात्मक सोच बड़ी से बड़ी मुश्किल से लड़ने की शक्ति देती है, सामर्थ्य देती है .. सकारात्मक सोच का अर्थ है आसानी से जीवन की चुनौतियों का सामना करना. सकारात्मक सोच डर पर विजय पाने में सहायक होती है. सकारात्मक सोच अमृत के समान होती है. बड़ी से बड़ी व् विपरीत परिस्थितियों से लड़ने की क्षमता होती है मनुष्य की सोच में.. गलत सोच का चश्मा जितनी जल्दी हो सके उतार देना चाहिए. बुरे विचार जितना दूसरों का नुकसान करते हैं उससे ज्यादा हमारा खुद का नुकसान होता है, क्योंकि अपनी सुरक्षा को लेकर डरा हुआ दिमाग गलत-सही का निर्णय नहीं ले पाता. यह आत्मचिंतन का समय है. योग और प्राणायाम के जरिये हमें अपने आचार-विचार-व्यवहार में आद्योपांत परिवर्तन लाकर पवित्रता कायम करनी होगी. एक बार पुनः प्रकृति की ओर लौटना होगा. अहं और अहंकार को त्यागना होगा, प्रभु की सत्ता में अर्थात प्रकृति से प्रेम करना होगा, उसे बचाना होगा, उसमें लीन हो जाना होगा….. महामारी से बचने के सारे प्रयास व् सावधानियां तो आपको बरतनी ही हैं उसके साथ आइये कुछ तरीकों पर अमल करें सकारात्मक बने रहने के लिए…. १. रात-दिन महामारी से सम्बंधित जानकारी न लें… किसी एक चैनल या सोर्स से उतनी ही जानकारी लें जो जरूरी है. बाक़ी समय अपनी पसंद के कामों में लगाएं जो आपके चहरे पर मुस्कराहट लाते हैं. 2. अतीत में इससे भी भयानक घटना से आप उबर कर वापस आए है और सामान्य जीवन जीने लगे हैं. यह सोच आपको कठिन परिस्थिति से शीघ्र बाहर ले आयेगी. 3. जो लोग आपसे बुरी स्थिति में हैं उनके विषय में सोचिये और उनकी मदद करने का संकल्प लीजिये. खुद को आप मज़बूत और स्वस्थ महसूस करेंगे. 4. जो काम आप पहले समय के अभाव के कारण नहीं कर पाते थे, अब करिए. परिवार के सदस्यों से बात करना, उन्हें ख़ास महसूस कराना, दुःख-दर्द बांटना.. जितना उन्हें अच्छा लगेगा उससे ज्यादा आपको मानसिक संतुष्टि और आनंद देगा. 5. हंसना …. जी हाँ हंसना अपने आप में एक दवा है. जो व्यक्ति खुश रहते हैं, हंसते हैं नकारात्मकता उनसे कोसों दूर होती है. वे हर बात में कोई न कोई अच्छाई ढूंढ कर हँस लेते हैं. हास्यास्पद वीडयो देखिये ...खुलकर हंसिये … समस्याएं स्वयं आपसे दूर भागेंगी …. आज बस इतना ही.. शीघ्र आपसे फिर मिलूंगी…. सुधा गोयल 'नवीन'

Tuesday 4 June 2019

विकलांग कौन?

विकलांगता पर बहस छिड़ी थी, बड़ी मुश्किल घड़ी थी..... अंग-दोष को विकलांग-दिव्यांग, कहा जा रहा था ....... मन मेरा बेचैन मानने को तैयार न था, एक दृश्य बार-बार परिभाषा बदलने की गुहार लगा रहा था....... जब उसकी अस्मिता लुट रही थी, खून से तर, चुन्नी तार-तार हुई थी चीखों से आसमान में छेद हुआ था, दर्द का सैलाब तमाश बीनों को डुबाने की कगार पर था, तब ........ जिन आखों में हया न जन्मी, जिन हाथों में कम्पन न हुआ, जिन पैरों को लकवा मार गया, जिनका दिमाग सुन्न भी न हुआ क्या वही लोग सचमुच विकलांग न थे....... हाँ वही तो विकलांग थे.......

Wednesday 23 May 2018

पुनर्जन्म (कहानी)

पुनर्जन्म मैंने ऐसा तो कभी नहीं सोचा था। कानों पर विश्वास नहीं हो रहा है। हो सकता है मज़ाक हो। मज़ाक...... नहीं ऐसा मज़ाक कोई कैसे कर सकता है...... मज़ाक हंसाने के लिए किया जाता है, या फिर परेशान करने के लिए, रुलाने के लिए तो नहीं ..... मेरी आँखों से आँसू तो नहीं निकल रहे हैं पर मेरी अंतरात्मा रो रही है .... अभी चंद घड़ी पहले नेहा ने मुझे फोन करके बताया कि समीर ने अपने घर की बाल्कनी से कूद कर आत्महत्या कर ली...... "अब तो सब ठीक चल रहा था समीर....तेरे पास एक अदद अच्छी नौकरी, एक समर्पित बीबी, एक अपना मकान वह भी मुंबई जैसे शहर के सोहलवें माले पर...... फिर क्या था मेरे यार, जिसने एक बार फिर तुझे तोड़ दिया।" मैं बुदबुदाया। मेरी सोच रुकने का नाम नहीं ले रही थी। अभी उसी दिन तो....... जब हम बार में बैठे थे, और जिन्दगी के उतार-चढ़ाव पर चर्चा हो रही थी, समीर तुम्हीं ने तो कहा था न मेरे यार, "खुश हूँ मैं, बहुत खुश ..... कैसे शुक्रिया अदा करूं तेरा....मेरी जिन्दगी की नाव जब डूब रही थी, पता नहीं कहाँ से तू आया, और संभाल लिया मुझे..... आज मैं जो कुछ भी हूँ सिर्फ और सिर्फ तेरी वजह से हूँ रोहन..... मेरे यार... याद है तुझे मैं कितना टूटा हुआ था। उस दिन तक मुझे सुनने वाला कोई नहीं था। मम्मी-डैडी भी नहीं......" समीर बात मुझसे कर रहा था... देख कहीं और रहा था। "बस बस रहने दे मुझे याद है वह सब." मैंने कहा था। मैं पुरानी बातें दोहराना नहीं चाहता था। अभी उसी दिन तो.... यही कोई दस दिन पहले...... बीता हुआ कड़वा अतीत एक बार फिर तुझे अवसाद के काले गह्वर में न ढकेल दे, डर था मुझे....... पर तुम नहीं माने मेरे यार। क्या वह आज के भयानक सच के आने की पूर्व सूचना थी....... क्या तुझे अवसाद घेर चुका था...... काश! उस दिन तूने मुझे सारा सच बताया होता। सारा... पूरा का पूरा..... तू तो बस हमारी पहली मुलाक़ात में अटक कर रह गया था। समीर तू बोलता जा रहा था। "हमारा मिलना भी कैसा अजब संयोग था..... न हम स्कूल में साथ थे... न कॉलेज में.... इसी 'बार' में पहली बार मिले थे हम। मैं पीता जा रहा था.... पीता जा रहा था.... तुम पहला गिलास पकड़े चुपचाप देखे जा रहे थे...... फिर जब मैंने पांचवां गिलास मँगाया तो तुमने मेरा हाथ थामा और बिना कुछ पूछे-कहे मुझे 'बार' से उठाकर मेरे घर ले आये और बाल्कनी में पड़ी कुर्सी पर धकेलते हुए कहा , जो भी मन में है कह डालो मैं सुन रहा हूँ।" मुझे नही याद कि मैं तुमसे नाराज़ था, कि तुम्हारी मदद करना चाहता था,समीर. ..... तुम मेरे कोई नहीं लगते थे। उस दिन से पहले मैंने तुम्हें देखा भी नही था। दस साल पहले की घटना,.... लगभग भूल चुका था मैं..... लेकिन तुम्हें याद था सब कुछ..सिलसिलेवार ढंग से...... तुम कहते जा रहे थे, "रोहन, तूने पास पड़ी दूसरी कुर्सी खिसकाई..... ठीक मेरे सामने बैठ गया, मेरा हाथ अपने हाथों में लिया और चुपचाप मेरी तरफ देखता रहा। मुझमें हिम्मत नहीं थी तुझसे आँख मिलाने की..... पता नहीं कितनी देर हम यूं ही बैठे रहे फिर मेरी आँखों से आँसू निकलने लगे। तू चुप रहा रोहन, बिलकुल चुप.... फिर तूने मेरा हाथ हलके से दबाया था और मैं अपना आपा खो बैठा था। फफक-फफक कर रोया था मैं और मैंने तुझे वह सब कुछ बता दिया जो उस दिन तक सिर्फ और सिर्फ मेरी यादों में कैद था। कितना हल्का हो गया था मैं। तूने किचेन में जाकर दो कप कॉफी बनाई और फिर आकर मेरे पास बैठ गया। मैंने पूछा था, तू तो पहली बार आया है इस घर में तुझे कैसे पता चला कौन सी चीज़ कहाँ है। तुम बोले, हिन्दोस्तान के किसी भी किचेन में जाओ चाय-कॉफी और बर्तन की जगह वही होती है, जहां मुझे मिली।" समीर तू हँसने लगा था। खूब हँसा। हमारे हाथ में बीयर का ग्लास था। आह! दस दिन पहले। मुझे लगा तू खुश है बहुत खुश, जैसा तूने कहा। लेकिन फिर यह आज का सच....... हाँ तूने कुछ सोचते हुए अचानक यह भी पूछा था,....... रोहन, बर्तनों की तरह हर किसी के माँ-बाप एक से क्यों नहीं होते......मैं कुछ समझता इसके पहले तू इस तरह हँसा जैसे कितनी बेवकूफ़ी की बात की हो। सुरेखा का हाल पूछने पर तूने बताया था ........ आजकल वह ज़रा नाराज़ है ... अपनी एक बहुत पुरानी सहेली के घर कुछ दिन रहने गई हुई है। मेरे पूछने पर कि सब ठीक है न...... तू हँसा, कहने लगा, "क्यों रे सुरेखा ने तुझसे कुछ कहा क्या? मुझसे उसकी नाराज़गी नहीं सही जाती मेरे यार! वह तो बहुत अच्छी है। शायद मुझमें ही खोट है। चल छोड़....... तेरा गिलास अभी भी भरा है ...... मेरी इतनी चिंता करने की बुरी आदत छोड़ दे..... बहुत पछतायेगा..... " उस दिन तू फिर बहुत पी रहा था। हँस रहा था। बहुत बातें कर रहा था। जब हम चलने लगे, तूने मुझे गले लगा लिया। हम बड़ी देर तक गले लगे खड़े रहे। उस दिन मुझे यह एहसास कदापि न हुआ कि हम आखिरी बार गले मिल रहे थे। मुझे मिलना होगा ...... सुरेखा से मिलना होगा। कहाँ होगी सुरेखा...... ? सहेली के घर, या लौट आई होगी अपने घर..... आज ही आई होगी या आज से पहले.... सुरेखा, समीर की बीबी.... बेहद सुलझी हुई, समझदार, समर्पित बीबी..... मैं सुरेखा के प्रति बेहद भावुक हो उठा। एक लड़की अपना घर-परिवार, माँ-बाप छोड़कर पति के घर आती है, पति जैसा चाहता है बिल्कुल वैसा करती है....... कम से कम सुरेखा तो बिल्कुल वही करती थी जैसा समीर चाहता था। उसके जीवन का एक ही मकसद था समीर को गहरे अवसाद के कुएं से बाहर निकालना। होता भी क्यों न..... इन दोनों की शादी एक समझौता थी। समीर के धनाढ्य, सुसंस्कृत, व्यवहार-परस्त माँ-बाप और सुरेखा के दुखी-निराश माँ-बाप के बीच। समझौता चाहे जो भी रहा हो, दोनों को मान्य था। वे खुश थे। एक दूसरे में डूबे हुए। जैसे ईश्वर ने दोनों को एक-दूसरे के लिए ही बनाया था। पिछले आठ-नौ या दस सालों में सुरेखा ने एक भी मौक़ा ऐसा न दिया जब महसूस होता कि समीर जिंदगी से उदास हो रहा है। अक्सर हमारी मुलाक़ात इसी 'बार' में हुआ करती थी। सुरेखा जैसी निम्नमध्य वर्ग की लड़की के लिए पति को समझने, उसका दुःख बाँटने और हमराज़ बनने के लिए पति के दुराग्रह पर शराब का पहला घूँट पीना अपने वज़ूद को निचोड़ कर गिलास में ढालना था। पर सुरेखा ने बिना हिचक समीर के साथ 'बार' में बैठना..... पीना शुरू कर दिया था। वे घंटों बातें करते। घर पर कोई इंतज़ार करने वाला भी तो न था। न बाल, न बच्चे...... न सुबह जल्दी उठाने-उठने की चिंता......न सास-ससुर के ताने-उलाहने। समीर दस बजे ऑफ़िस जाता, वहीं ब्रेकफास्ट - लंच लेता। शाम फिर किसी मित्र के घर या 'बार' में बीतती। दिनभर सुरेखा क्या करती है, कैसे समय बिताती है, क्या खाती-पीती है, न कभी समीर ने पूछा..... न कभी सुरेखा ने बताया। कम से कम उसकी बातों से तो मैंने यही अंदाज़ लगाया था। पर वे खुश थे बहुत खुश! मेरे कदम सुरेखा-समीर के आशियाने की ओर मुड़ गए। मुझे देखते ही सुरेखा मुझसे लिपट गई और फूट-फूट कर रोने लगी। समीर की मॉम भी आँखों पर काला चश्मा पहने मेरे पास आकर खड़ी हो गईं और सुरेखा के हटते ही मेरे गले से चिपक गईं। "तुम्हीं बताओ रोहन, बचपन की नादानियों की सज़ा, क्या कोई बच्चा अपनी माँ को अपनी जान लेकर, देता है." 'बचपन की नादानियाँ' किसके लिए कह रहीं थीं वे....... उन्होंने ही स्पष्ट कर दिया, "अठारह साल की थी मैं, जब मेरी शादी हुई थी, समीर के पापा से.... उन्नीस साल पूरे भी नहीं हुए थे कि समीर आ गया गोदी में...... मैं तैयार नहीं थी...... रोहन, मैं बच्चा पालने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं थी.... समीर के पापा ऊंचे ओहदे पर थे। देर रात की पार्टी, शराब और बड़े-बड़े लोगों का घर में आना जाना उसे कभी अच्छा नही लगता था। वह आया-नौकर की देख-रेख में पला बढ़ा.... , पर मैं उसे बहुत प्यार करती थी। वह क्यों नहीं समझ पाया। उसने मुझे कीमती आया-नौकर रखने के लिए कभी माफ़ नहीं किया। ....... तुम्हें तो पता है न .....सब कुछ पता है ... क्या किया था उसने।" उन्होंने मुझे प्रश्न-सूचक, अश्रुपूरित नेत्रों से देखा...... " तेरह साल की कच्ची उम्र थी उसकी ......उस छोटी सी उम्र में उसने अपने ...... " और वे फफक-फफक कर रोने लगी। मेरे पास एक भी शब्द नहीं थे उन्हें सांत्वना देने के लिए। आज तक मैं केवल समीर को सुनता आया था, उसके बचपन की कहानी। मेरी सारी की सारी सहानुभूति केवल और केवल समीर के साथ थी। सुरेखा से मिलने के बाद मैं उसकी भी इज्ज़त करने लगा था, लेकिन मेरी पूरी सहानुभूति तब भी समीर के ही साथ थी। हाँ... मुझे पता था ,क्या किया था उसने, उस छोटी सी उम्र में अपने साथ... लेकिन आज से पहले मेरी जानने की इच्छा भी नहीं थी, कि उसने ऐसा क्यों किया। आंटी के जाने के बाद समीर के पापा मेरे पास आये और रुंधे हुए गले से मेरा हाल पूछा फिर यह भी पूछा कि क्या समीर ने मुझे कुछ बताया था, क्योंकि पापा से उसकी बातचीत बेहद औपचारिक लगभग ना के बराबर थी। मैंने सर हिलाकर जता दिया कि समीर ने मुझे भी कुछ नहीं बताया है। निराश पापा सहानुभूति जताने आये शोक-संतप्त भीड़ में कही गुम हो गए। मैंने पेट में हल्का सा दर्द महसूस किया, जैसे कुछ गुड़गुड़ा रहा था। मेरी रोने की इच्छा हो रही थी, लेकिन मैं पुरुष था और समीर मेरा दोस्त था, सगा नहीं, इसलिए मेरे लिए यह वाज़िब नहीं था कि मैं उस संभ्रांत, विशिष्ट, उच्च वर्गीय भीड़ में आँसू बहाकर अपना उपहास करवाऊं। मैंने चारों ओर नज़र दौड़ाई,कहीं सुरेखा दिख जाए तो मैं कुछ क्षण उससे बातें कर सच्चाई जान लूँ। लेकिन मुझे सुरेखा नहीं दिखी और मैं भारी मन लिए लौट आया। लगभग दस दिन तक मेरे पेट में हल्का दर्द होता रहा और मन बेचैन रहा। फिर धीरे-धीरे सब कुछ सामान्य होने लगा, लेकिन समीर मेरी शख्सियत का हिस्सा बन चुका था और अपना अंग काटकर फेंक देना क्या आसान है? मेरा ट्रांसफर हो गया और मैं जमशेदपुर आ गया। मुंबई छोड़ने के साथ समीर के परिवार से संपर्क नहीं के बराबर था। मैं भी अपने काम में इतना उलझ गया कि संपर्क रखने का प्रयास नहीं किया। बीतते बीतते एक साल बीत गया। एक दिन अचानक सुरेखा का फोन आया, उसने मुझे बंबई बुलाया था। उसका आग्रह आत्मीय था। वह अपने जीवन के इस ख़ास दिन को मेरे साथ शेयर करना चाहती थी। उसे लग रहा था कि यदि मैं पहुँच जाऊंगा तो उसकी खुशी दुगुनी हो जायेगी क्योंकि मैं ही एकमात्र ऐसा इंसान हूँ जो समीर के सबसे करीब रहा है। सुरेखा मुझे बहुत कुछ बताना भी चाहती थी। सुरेखा ने फोन पर कहा, "रोहन..... भईया.... मैं एक बच्चा गोद ले रही हूँ। वह मेरा और समीर का बच्चा कहलायेगा। क्या आप अपने दोस्त के बेटे से मिलने नहीं आयेंगे।" मैंने कहा,"ज़रूर आऊँगा।'' और फोन काट दिया। ''बच्चा गोद ले रही हूँ।'' मुझे अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था। 'बच्चा' के नाम से समीर को नफ़रत थी। .... उसने उस छोटी सी उम्र में अपने साथ यही तो किया था। अस्पताल जाकर भारी रिश्वत देकर खुद को नपुंसक बना लिया और इस तरह उसने अपनी माँ से बदला लिया। फिर इश्तिहार दिलवाकर ऎसी लड़की से शादी की थी जिसकी बच्चेदानी ही न हो। हिसाब बराबर ....... उसने सोचा, न एक और बच्चा इस दुनिया में आयेगा न समीर-सुरेखा की तरह ज़हालत-ज़िल्लत सहेगा। समीर ने पद-प्रतिष्ठा-अमीरी से उपजी उपेक्षा सही थी तो सुरेखा ने दैविक अन्याय, नाइंसाफी की अवहेलना। इसीलिए दोनों की जोड़ी 'मेड फॉर इअच अदर' थी। दोनों खुश थे , बहुत खुश........ मुझे जाना ही होगा..... मिलना ही होगा....... सुरेखा से बात करनी ही होगी...... और नहीं सह पाऊंगा मैं...... मेरे पेट में कैसा अजीब सा दर्द, मीठा-मीठा बना रहता है, कभी-कभी ऐंठन भी होती। "आप आ गए, रोहन, मैं आपका ही इंतज़ार कर रही थी। आइये न, देखिये कितना प्यारा है, हमारा समीर....." उत्साहित सुरेखा मुझे खींचती हुई अपने कमरे में ले गई। समीर....? सुरेखा ने अपने गोद लिए बच्चे का नाम समीर क्यों रखा, मैं जानना चाहता था. मैंने आश्चर्यमिश्रित स्वर में पूछा, "समीर"....... सुरेखा मुस्कुराई, "हां रोहन .... अब मैं अपने समीर के साथ रात-दिन रहूँगी। मुझे छोड़कर जाना चाहता था.... नहीं जा सकता वह ...मुझे छोड़कर नहीं जा सकता ..... हा.... हा..... हा..... वह हँसने लगी। रोहन आप सोच रहे होंगे बच्चा गोद लेकर और उसका नाम समीर रखकर मैंने समीर के साथ बग़ावत की है, क्योकि सबको पता है समीर बच्चा नहीं चाहता था। लेकिन नहीं मैंने बग़ावत नहीं की है। समीर के बिना मैं अपनी ज़िंदगी की कल्पना भी नहीं कर सकती। मैं तो केवल समझाना चाहती थी। उस दिन इसी बात को लेकर मुझमें और समीर में बहुत कहा-सुनी, लड़ाई और रोना-धोना हुआ था । मैं कुछ दिन सहेली के घर रहने चली गई ...... यह सोचकर कि बात ठंडी हो जायेगी तब बात करेंगे, लेकिन...... रोहन एक औरत के दिल में मातृत्व की अभिलाषा का जागना क्या इतना बड़ा अपराध है? उस दिन समीर से मैंने एक बच्चा गोद लेने की बात कही थी। मैं अपनी और समीर की ज़िंदगी में एक ठहराव, एक उत्साह चाहती थी। एक भविष्य, एक जीने का मकसद चाहती थी। क्या ग़लत था? समीर भाग रहा था। खुद से, अपने अतीत से, माँ-बाप से, ज़िंदगी से........ पीना....... पीना.......... और पीना। मैं समीर का साथ देते-देते थक गई थी रोहन...... बहुत थक गई थी। मैंने सोचा कुछ दिन अलग रहकर आत्म-मंथन करूंगी फिर लौट आऊंगी और फिर से मनाने की चेष्टा करूंगी.....पर उसने मेरा इंतज़ार नहीं किया। चला गया..... सबसे दूर .....बहुत दूर........हमेशा के लिए......." क्षण भर को वह रुकी। शायद दर्द का घूँट पी रही थी। फिर बोली, " समीर मुझे बहुत प्यार करता था। मेरी हर छोटी सी इच्छा उसके जीने का बहाना थी...... फिर....... वह रोने लगी। फिर अपने आप चुप हो गई। ....... रोहन एक बार मेरे मन में आया कि मैं भी अपने समीर के पास चली जाऊँ..... फिर मुझे लगा यह कायरता होगी , क्यों न समीर को अपने पास बुला लूँ........ तुम्हें पता है न....... पापा ने समीर से बात करना बंद कर दिया था क्योंकि उन्हें उनका वारिस चाहिए था और समीर ने जड़ ही काट दी थी। रोहन तुम्ही बताओ...... माँ-बाप जिन्दगी भर बच्चों को उनकी भूलों के लिए माफ़ करते रहते हैं..... हैं न........ क्या बच्चे माँ-बाप को एक गल्ती के लिए भी माफ़ नहीं कर सकते?" सुरेखा कुछ पल रुकती फिर बोलने लगती। जो उसने आज तक नहीं कहा आज कह देना चाहती थी। आज मैं सिर्फ सुनने आया था। अपनी कोई कोई राय देने नहीं। उसने कहा, "समीर और नेहा में सात साल का अंतर है। नेहा को माँ-पापा से कोई शिकायत नहीं है। नेहा ने बहुत बार माँ का दर्द समीर को बताना चाहा, पर समीर हर बार पत्थर का बुत बन जाता। नौकर-आया के हाथों हुई अपनी परवरिश के लिए उसने अपनी माँ को कभी माफ़ नहीं किया और जीवन भर के लिए बच्चा न पैदा करने की कसम खा ली।" सुरेखा क्षण भर चुप हुई फिर बोली, "रोहन, मैं नही चाहती कि समीर का नाम कड़वी यादों के साथ लिया जाये। रोहन देखो समीर लौट आया है, सिर्फ मेरे लिए नही...... माँ-पापा लिए, नेहा के लिए और तुम्हारे लिए भी...... " सुरेखा के नन्हें समीर ने अंगड़ाई ली और ऊँ...... आँ...... की आवाज निकाली। सब कुछ भूल कर सुरेखा ने उसे गोद में उठा लिया...... प्यार करने लगी..... बेतहाशा...... जैसे सचमुच उसका समीर लौट आया हो। कुछ आश्वस्त, कुछ तृप्त, कुछ निश्चिन्त मैं लौट आया अपने घर, अपने शहर। अब मेरे पेट में ऐंठन नहीं होती। सुधा गोयल ‘नवीन'

Monday 21 August 2017

माँ आई है (कविता )

माँ आई है गाँव से मेरी माँ आई है, बड़ी मिन्नतों के बाद आई है, बगल में गठरी आषीशों की, गोंद के लड्डू में, प्यार लाई है, मुद्दतों बाद माँ आई है, गाँव से मेरी माँ आई है। सरसों जम कर फूल रही है, गेंहू की बाली....... मोटी होकर झूल गई है.... सुरसी गैया के छौना हो गया.... पूरे गाँव में दूध बंट गया....... छन्नू की अम्मा, पप्पू के पापा, और चाची, मौसी के, उपहार लाई है....... गाँव से मेरी माँ आई है। कमली के जुड़वा बेटे की, उर्मिला के भाग जाने की, शन्नो बुआ ने खटिया पकड़ी.... रामू काका के गोरू बिक गए, समाचार मज़ेदार लाई है....... गाँव से मेरी माँ आई है। बेटा खुश है, बेटी खुश है, बेटा-बेटी की माँ भी खुश है, छप्पन पकवानों की खुशबू से, दो कमरे का दबड़ा खुश है, रोज़ खिलाती अडोस-पड़ोस को, मेरी माँ से हर कोई खुश है। पढ़ता हूँ जब मैं, माँ का चेहरा, लगता पूछूं, क्या माँ भी खुश है, सौंधी रोटी, चूल्हे की छोड़, गैस भरी रोटी क्या पचती, नीम की ठंडी छाँव याद कर, रात- रातभर मेरी माँ जगती, आधी बाल्टी पानी है, माँ का हिस्सा ..... कैसे धोये,कैसे नहाए…... माँ नाखुश है....... माँ चुप है....... पर मैं और नहीं सह सकता, कल ही माँ को गाँव में उसके, खुश रहने को छोड़ आउंगा ....... मैं जाऊँगा, मिल आऊँगा........ बेटा-बेटी को मिलवा लाऊँगा....... मैं मेरी सुविधा औ, खुश होने की खातिर, माँ से उसका स्वर्ग छीन कर, खुश रहने की भूल, भूल कर भी नहीं कर सकता, अब मैं और नहीं सह सकता माँ को अपनी खुश रहने को छोड़ आउंगा, गाँव में उसके छोड़ आऊँगा।। सुधा गोयल 'नवीन' -- Sudha Goel http://sudhanavin.blogspot.com

Thursday 30 March 2017

रवीन्द्रनाथ की कविता का अनुवाद

हाँ मेरा नाम मालती है। कोई भी नहीं जान पायेगा। बंगाल में ऎसी कितनी ही मालतियाँ हैं, और वे सभी साधारण लड़कियां हैं..... उन्हें फ्रेंच या जर्मन भाषा नहीं आती... उन्हें सिर्फ रोना आता है। तुम्हीं बताओ कैसे जिताओगे उन्हें... ? माना तुम्हारी सोच महान है, तुम्हारी लेखनी उदार भी, हो सकता है तुम उसे बलिदान के रास्ते पर ले चलो, शकुन्तला की तरह, दुःख की पराकाष्ठा तक। सुनो..... मुझ पर दया करो.... मेरे स्तर तक आओ। काली अंधियारी रात में, बिस्तर में छुपकर, मैं अनगिनत देवताओं से वरदान मांगती हूँ..... पर वे मुझे नहीं मिलते, लेकिन, हो सकता है, तुम्हारी नायिका उसे पा ले। क्यों नहीं तुम नरेश कों सात सालों के लिए लन्दन में रहने देते, अनेकानेक बार परीक्षाओं में असफल हो जाने देते, और रहने देते चापलूस-खुशामदीदों के साथ, इस बीच मालती को एम्.ए. की डिग्री मिल जाती, और वह तुम्हारे कलम के बल पर, गणित में, कलकत्ता विश्विद्यालय में प्रथम उत्तीर्ण होती। लेकिन यदि तुम ऐसा करते तो...... तुम्हारी साहित्य-शिरोमणि वाली प्रसिद्धि, बुरी तरह प्रभावित होती........ रहने दो मेरी स्थिति जैसी है, वैसी ही..... अपनी कल्पना की उड़ान को प्रतिबंधित मत करो। आखिर तुम ईश्वर की तरह कंजूस भी नहीं हो। उस लड़की को योरप जाने दो, और ज्ञानी, विद्वान, दिलेर, बहादुर, कवियों, राजाओं, एवं कलाकारों के, झुण्ड को, उसके इर्द-गिर्द घूमने दो। खगोलशास्त्रियों की तरह....... खोजने दो, समझने दो....... केवल उसके पांडित्य या विद्या को नहीं, वरन एक औरत के वजूद को ....... जिसके पास दुनिया को जीतने की जादुई शक्ति है........ उस पहेली या रहस्य को उजागर होने दो, परन्तु बेवकूफों के देश में नहीं........ वरन वहाँ जहाँ कदरदान, पारखी और कला मर्मज्ञ हों। जैसे अँगरेज़, जर्मन या फ़्रांसीसी ....... अनेकानेक मिले सम्मानों के लिए क्यों न मालती का अभिनन्दन करें, और जुटाएं ढेरों प्रसिद्द हस्तियाँ। और सोचे कि प्रशंसाओं की अविराम बारिश हो रही है। [3/11, 14:34] Laksha's Southampton No: जब तक वह इन दोनों के बीच का रास्ता, बड़ी ही लापरवाही से तय करती है ---- जैसे उन्मत्त लहरों पर कोई कश्ती....... उन प्रशंसकों की फुसफुसाहटे उसकी आँखों पर टिकी हैं , सब कह रहे हैं कि उसकी सम्मोहित करने वाली आँखें, भारत के घने बादलों और प्रखर सूरज की चमक का मेल हैं। (जिस किसी से संबंधित हो, यहाँ मैं कहना चाहूंगी कि विधाता ने मुझे बेहद सुन्दर आँखें दी हैं। योरप के किसी सौन्दर्योपासक से मिलने का सौभाग्य नहीं मिला मुझे ...... इसलिए, स्वयं से कहती हूँ मैं कि विधाता ने बेहद सुदर आँखें दी हैं मुझे। नरेश को अद्वितीय सुन्दर औरतों के झुण्ड के साथ किसी कोने से अवतरित होने दो, और तब? तब मेरी कहानी अंत हो जायेगी, मेरे सपने दफ़न हो जायेंगे, आह! एक साधारण लड़की! ओह! उस सर्वशक्तिमान की शक्तियों का कितना दुखद अंत !!! आह! आह! (अनुवाद) सुधा गोयल 'नवीन'

Tuesday 28 February 2017

‘किटी - पार्टी’

‘किटी - पार्टी’ ‘‘संजू का ई. मेल आया है.’’ आदित्य की ऊँची आवाज डाइनिंग रूम के एक कोने से, जहाँ कम्पयूटर रखा था गूँजी...... ‘‘क्या लिखा है, पढ़ कर सुनाओं..........’’ अरूंधति ने किचन से ही गुहार लगाई. आवाज से उसकी खुश छलक न जाए, इसका उसने विशेष ध्यान रखा. जब भी विदेश में बसे बेटे की कोई खबर आती है अरूंधती उसे अपनी निजी सम्पत्ति की तरह छुपाना चाहती है. ‘‘हमें फिर से बुलाया है’’ एक लम्बे अंतराल के बाद आदित्य की आवाज आई. ‘‘लिखता है... पापा, अब आपको व माँ को वहाँ इंडिया में अकेले रहने की क्या जरूरत है. हमारे पास आकर रहिए. ईशा, आयशा का बचपन अपने दादा दादी की देखरेख में बीतेगा तो मैं व मिनी भी चैन से अपने काम में मन लगा सकेंगे...... सुन रही हैं आप …………। आदित्य के स्वर में उत्साह तो था, पर कटाक्ष का पुट ही अधिक था. आदित्य ने दुनिया देखी है. पूरे पैंतीस साल की नौकरी बजा कर पिछले साल ही तो रिटायर हुए हैं. दो-दो बेटों का ब्याह किया है, अनेक संस्थाओं की जिम्मेदारी सम्भाली है. लोगों की बातों का आशय वे चुटकी में भाँप लेने की कला में पूरे सिद्धस्त है, फिर संजू तो उनकी अपनी औलाद है.... आदित्य ने आगे पढ़ना शुरू किया, ‘‘लिखता है, -- यहाँ इंडिया की तरह नौकर-आया तो होते नहीं, सारा काम अपने हाथों से करना पड़ता है, उस पर से बच्चों की देखभाल के लिये जो नैनी रखी है, वह भी छुट्टियों में अपने घर चली जाती है. इसलिये हमने सोचा है कि अब आप लोग यहाँ आ जाइए. नैनी पर होने वाले बड़े खर्चे से तो आप दोनों पर होने वाला खर्च कहीं कम होगा. बच्चों को संस्कार तो आप लोग ही दे सकते हैं...... नैनी वह विदेशी औरत भला बच्चों को क्या संस्कार देगी. अगले महीने की पाँच तारीख से बच्चों की छुट्टियाँ है, उसके पहले आप लोगों को आना है, एयर टिकिट हम जल्दी ही भेज देंगे.’’ आदित्य आखिरी पंक्तियाँ सुना रहे थे कि अरूंधति छोटे तौलिये से हाथ पौंछती हुई उनके सामने आकर खड़ी हो गई. वह मुस्कुरा रही थी. अपने स्मार्ट बेटे की चालाकी भरी बातें भी उसे बहुत प्रिय हैं -- बहुत प्यार करती है वह संजू से. उस शाम अरूंधति को किटी पार्टी में जाना था, इसलिये वह घर का छोटा बड़ा सारा काम निपटा लेना चाहती थी, क्योंकि किटी पार्टी से लौटकर आओ तो कुछ काम करने का मूड ही नहीं बनता, बस वहाँ हुई तमाम बातों को आदित्य के साथ चटकारे ले लेकर दोहराने का मजा ही अलग होता है. आज अरूंधति कुछ ज्यादा ही उत्साहित थी क्योंकि उसे अपनी सहेलियों को यह ताजा खबर देनी थी कि तीन महीने के अंतराल में वे फिर से अमरीका जाने वाले हैं. उनका कमाऊ बेटा जो बहुत ऊँचे ओहदे पर है, वही उनका टिकिट भी भेजेगा. अब क्यों, क्या, कैसे, यह अन्दर की बात है..... …... किटी पार्टी का नजारा आज कुछ बदला-बदला सा था. सुरेखा, दीप्ति, माया, रूबी, अलका सभी गजधर होटल के हाॅल में जमा तो थी, लेकिन जो शोर, हँसी, किलकारी हमेशा एक दूसरे का स्वागत किया करती थी, वह लापता थी. नीना व शीला अभी तक नहीं पहुँची थीं. शीला किटी पार्टी में पहुँचने वाली सबसे पहली सदस्या हुआ करती है, फिर आज वह क्यों नहीं पहुँची.......... कहीं कोई अशुभ बात तो नहीं हो गई.... नहीं...नहीं.... कल ही तो उसने सबको अपनी नातिन की फस्र्ट बर्थ-डे पार्टी में बुलाया था. यह बात अलग है कि अरूंधति नहीं जा पाई थी, क्योंकि उसे आदित्य के साथ उनके बाॅस की बेटी की शादी में जाना था. अरूंधति ने अनुमान लगाया कि सभी कल शीला की पार्टी में गई होंगी, और आज की यह चुप, वहीं घटी किसी घटना की प्रतिक्रिया है. उसने भी चुप रहना ठीक समझा. अब उसे नीना की चिंता ने घेर लिया. कुछ ही दिनों पहले नीना का एक्सीडेंट हुआ था... पर वह तो ठीक हो गई है... क्या बात है.... वह भी अभी तक नहीं पहुँची थी. अरूंधति नीना के बारे में सोचने लगी--- नीना दो दामादों व एक बहु की सास है। आजकल वह अनाथ, अपाहिज बच्चों का एक स्कूल चलाती है, पति अधिकतर अपने फार्म हाउस पर रहते हैं- ……उनकी और नीना की सोच में जमीन आसमान का अंतर है. पति को पत्नी का अपाहिज बच्चों का स्कूल चलाना अपमान जनक लगता है. बेशुमार धन क्या उन्होंने इसलिए कमाया है कि पत्नी घर से बाहर जाकर काम करे, वह भी टका सा? अपनी नाराजगी दिखाने का उन्होंने अजीब रास्ता निकाल लिया है. फार्म हाउस पर रहते हैं और पेड़ पौधों की सेवा करते हैं. कभी-कदा नीना फार्म हाउस पर जाती है, पर उसका मन वहाँ नहीं लगता है, और वह शीघ्र लौट आती है. नीना को जितना बेमानी लगता है यहाँ बेटी दामाद के साथ रहना, उतना ही अस्वाभाविक लगता है फार्म हाउस में रहना. उसने जान लिया है कि उसकी किसी को भी जरूरत नहीं है सिवाय उन अनाथ-अपाहिज बच्चों के जिनका वह स्कूल चलाती है. नीना की बड़ी बेटी भागलपुर के किसी छोटे से गाँव में रहती है, ना ही वह कभी आती है, ना ही कभी कोई कुशल-क्षेम का पत्र-व्यवहार करती है... एक तरह से सब उसे भूल चुके है..नीना का एकलौता बेटा माँ से इसलिये नाराज रहता है कि माँ ने, फार्म हाउस उसके नाम करवाने के लिये बाप से हील हुज्जत नहीं की. उसका मानना है कि उसका बाप अपनी अथाह सम्पदा पर कुंडली मारे बैठा है, उसका सोचना है कि हर बाप अपने बेटे के लिये धन जोड़ता है, न कि स्वयं उड़ाने के लिये. इसलिये उसने भी सबसे नाता तोड़ लिया है. नीना की छोटी बेटी आर्थिक रूप से सबसे कमजोर है. वह नीना के साथ ही रहती है, लेकिन अपने पति व बच्चे की दुनिया में मग्न रहती है, ..... पिछले साल जब नीना का कार एक्सीडेंट हुआ था. तब अस्पताल ले जाने से लेकर घर आने तक, पूरी सेवा उसकी किटी पार्टी की सहेलियों ने ही की थी. कार की मरम्मत, इनश्योरेंस आदि के झंझट आदित्य ने सम्हाले थे. अरूंधति ने देखा कि नीना पिछले दरवाजे से हाॅल में दाखिल हो रही है. गुमसुम सी.... अपनी विचार श्रंखलाओं को झटक, चेहरे पर तेज और वाणी में ओज भर कर अरूंधति ने प्रश्न किया, ‘‘अरे भई सब इतने चुप क्यों हैं? और अभी तक कोल्ड ड्रिंक भी सर्व नहीं हुई है, क्या बात है?’’ सुरेखा की ओर मुखातिब होकर बोली, ‘‘सुरेखा मैडम आपकी खातिरदारी के तो इतने चर्चे हैं, फिर आज यह ढील-ढील कैसी... क्या अपनी प्रिय सखी शीला के आने के बाद ही सर्व करवाओगी?’’ सबका ध्यान अपनी ओर खींचने में अरूंधति सफल तो हो गई, परंतु न कोई उत्तर मिला, न कोई हँसा खिलखिलाया.... तभी रूबी ने अरूंधति को आँखों के इशारे से अपने पास वाली कुर्सी पर आकर बैठने को कहा. फाइन नेट पर जरदोजी के काम वाला सलवार सूट रूबी के आकर्षक व्यक्तित्व में चार चाँद लगा रहा था. उसके बच्चे अभी छोटे हैं, बेटा दसवीं में और बेटी आठवीं क्लास में पढ़ते हैं. गाने-बजाने की बात हो, या फिर नयी-नयी डिशेज बनाने की, तब रूबी खूब बढ़-बढ़ कर बोलती है, लेकिन जब बहु या दामाद पुराण चल रहा हो तो मूक श्रोता बनी रहती है. अरूंधति ने रूबी के बगल वाली कुर्सी तनिक और सटाते हुए फुसफुसी आवाज में पूछा,--‘‘क्या बात है?’’ रूबी ने प्रश्न का उत्तर प्रश्न से ही दिया, ‘‘कल तुम शीला की बेटी की पार्टी में क्यों नहीं आई थी. बुलाया तो उसने तुम्हें भी था.’’ अरूंधति की शंका शायद सच है, उस पार्टी में ही कोई बात हुई है. अरूंधति बात की गहराई तक पहुँचना चाहती थी. शीला अभी तक नहीं आई थी. उसने सोचा कि बात यदि दीप्ति, माया, अलका या सुरेखा को लेकर होती तो यहाँ का माहौल आक्रामक होना चाहिए था. बातें जोर-जोर से हो रही होती, और जो वहाँ नही होती, उसकी बुराइयों के पुराण का टीला बन चुका होता. अवश्य कोई गम्भीर बात है. अरूंधति ने अपने स्वर को और धीमा व गोपनीय बनाते हुए रूबी को उत्तर दिया,-‘‘आदित्य के एम. डी. शर्मा जी की बेटी की शादी थी, वहाँ जाना बहुत जरूरी हो गया था. आदित्य की बात टाल न सकी, इसलिये नहीं आ पाई, बता न क्या हुआ था वहाँ? रूबी ने दरवाजे की ओर देखा, बेयरा पाइनपल डिलाइट, फ्रूट पंच, व कोक लेकर आ चुका था. दोनों ने अपनी-अपनी पसन्द के ड्रिंक उठाये, बातों का सिलसिला आगे बढ़ा. रूबी ने प्रश्न का उत्तर फिर प्रश्न से किया, ‘‘अरूंधति क्या तुझे मालुम है शीला व गुप्ता जी ने बेटी को बड़ा करने में कितनी मुसीबतों का सामना किया था. शादी के दस साल बाद गीता पैदा हुई थी.... वह भी सिजीरियन.’’ अरूंधति - ‘‘हाँ-हाँ वह सब पता है मुझे, कैसे सास ससुर की आँख बचा-बचाकर उस लड़की की फरमाइशें पूरी करती थी. गुप्ता जी अब अच्छी स्थिति में पहुँचे हैं न, जब से अगरबत्ती का बिसनेस शुरू किया है, जब तक नौकरी में थे एक अच्छा सोफा भी नहीं था उनके घर.’’ रूबी ने टोका, ‘‘जो भी कहो, शीला को मानते बहुत हैं गुप्ता जी, सुगृहिणी जो है।” अरूंधति चुप न रह सकी, ‘‘उस बेचारी ने कभी अपने लिये एक अच्छी साड़ी की भी इच्छा नहीं रखी, कभी भी कुछ चाहा तो सिर्फ गीता के लिये. एक से एक कपड़े पहनाये, मँहगे स्कूल में पढ़ाया, हाॅस्टल भेजा, यू. के. से बिसनेस मैनेजमेंट करवाने का खर्च कैसे सहा होगा यह तो वही जानते होंगे. अच्छा छोड़, कल क्या हुआ यह तो बता............” इस बीच अलका, दीप्ति, सुरेखा भी अपनी अपनी कुर्सी ले वहीं चली आई और एक बड़ा सा ग्रुप बन गया. आधुनिकता की दौड़ में दीप्ति इन लोगों से एक कदम आगे थी, दो दशक पहले उसने अंतरजातीय विवाह किया था, पति का अच्छा बिसनेस था, और एकलौता बेटा आई.आई.टी. से इंजीनियरिंग कर रहा था. रूबी से पूछे गये प्रश्न का उत्तर उसने दिया, ‘‘होना क्या था, पुराने, घिसे-पिटे ख्यालात हैं तो ‘काॅनफ्लिक्ट’ होना लाजमी है.’’ रूबी बोली, ‘‘लगभग दो साल हुये गीता ने अपने क्लास-मेट अख्तर से शादी करने की जिद की थी तब शीला पर जैसे पहाड़ टूट पड़ा था. गुप्ता जी आग बबूला हो गये थे. बेटी को सर पर चढ़ाने के लिये शीला को बहुत कुछ सुनना पड़ा था, तरह-तरह से गुप्ता जी के मन के अंगार को झेला था शीला ने.’’ चुलबुली अलका ने जिज्ञासू बच्चे के समान प्रश्न किया, ‘‘पर शादी तो उसकी अख्तर से ही हुई न?’’ किसी ने कोई जवाब नहीं दिया. अलका की दो बेटियाँ हैं ...बड़ी बेटी फैशन डिजानिंग का कोर्स कर रही है, और छोटी बेटी सी. ए. का इम्तहान देने वाली है. बेटी की शादी में क्या-क्या पापड़ बेलने पड़ते हैं, वह जानना चाहती थी। ‘‘माया तू बता, कल क्या हुआ था? तू तो उसी की काॅलोनी में उसके बराबर वाले फ्लैट में रहती है. पास-पास फ्लैट वालों को तो यह भी पता रहता है कि पति ने बिस्तर में क्या कहा.’’ अरूंधति की बात पर सभी खिलखिलाकर हँस पड़ी. माया, शीला की हमउम्र और बेहद प्यारी सहेली रही है. शादी कर के दोनों लगभग साथ-साथ एक दूसरे के पड़ोस में रहने आई थीं. जब माया छः सालों में तीन बच्चों की माँ बन गई, और शीला को एक भी न हुआ तो सम्वेदना, सहानुभूति जनित प्यार का रिश्ता बहनापे में बदल गया. अनेक कोशिशों के फलस्वरूप दस साल बाद जब शीला की गोद हरी हुई, तब से लेकर आज तक माया ने शीला का भर-पूर साथ दिया. माया का गला रूँधा हुआ और आँखें नम थी. उसकी हताशा और निराशा यूँ बाहर आई. ‘‘आखिर बच्चे इतने खुदगर्ज क्यों हो जाते हैं? याद है न एक बार शीला बहुत बीमार पड़ी थी, उसे अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा था. आठ या नौ बोतल सलाइन चढ़ा था, उसकी आँते सूख गई थी, मरते-मरते बची थी.’’ सभी ने उँचे स्वर में हाँ में हाँ मिलाया और पूछा कि उस घटना से गीता का क्या सम्बंध है. माया ने तिरस्कार में हुँः उच्चारित किया फिर बोली, ‘‘सम्बंध है और सिर्फ उसी से सम्बंध है...गीता की अख्तर से शादी की जिद पूरी करवाने के लिये शीला ने खाना-पीना छोड़ दिया था. आठ दिन तो उसके व्यवहार से किसी को भी पता न चला कि वह भूखी रह रही है, पर कितने दिन..............एक दिन वह बेहोश हो, गिर पड़ी. अस्पताल के बिस्तर में पड़े-पड़े अपनी आँखों के करूण इशारे से शीला ने गुप्ता जी को मना लिया. शीला से बिछुड़ने की कल्पना मात्र ने गुप्ता जी के पत्थर दिल को मोम सा पिघला दिया. इस तरह हुई थी गीता और अख्तर की शादी. उसी गीता ने कल........ .छिः.........’’ माया का मन अजीब वितृष्णा से भर गया............वह चुप हो गई. कुछ देर के लिये सन्नाटा छा गया. हाथ में पकड़े हुये कोल्ड ड्रिंक के ग्लास, पकौडे, चिप्स स्थिर हो गये. शीला की इस सच्चाई का किसी को भी पता नहीं था....... अभी भी कल की घटना पहेली ही बनी हुई थी. कल क्या हुआ.........एक बड़ा सा प्रश्न चिन्ह सभी के चेहरे पर ??? ‘‘कल की घटना तो मेरे सामने की है.’’ सुरेखा ने, जो आज की पार्टी की मेजबान थी, मुँह खोला. ‘‘वह तो शीला ही है जो सब बर्दाश्त कर गई. मेरी सुकन्या ने ऐसा किया होता तो थू करती ऐसी बेटी पर, तब निकल कर बाहर आती.’’ अलका की मासूमियत फिर उछली, ‘‘और गुप्ता जी?’’ सुरेखा के जैसे अंतःचक्षु खुल गये हों, बोली,-‘‘आज मैं समझी कि गुप्ता जी एकदम गऊ क्यों और कब से हो गये हैं. कल तो मुझे बेहद गुस्सा आ रहा था उन पर, कि बेटी पत्नी का अपमान करे और बाप चूँ तक न करे. आज सोचती हूँ बेचारे बोलते भी कैसे, शीला को खोने का साहस दोबारा कहाँ से लाते......’’ अति बोझिल व गम्भीर वातावरण को हल्का करने के लिये अलका बोली,--‘‘अरे भई जल्दी से घटना बताओ, भूख से पेट में चूहे दौड़ रहे हैं।” सुरेखा ने स्नैक्स की प्लेटें चारो ओर घुमाने के बाद बताना शुरू किया, -- ‘‘जारंग होटल के बड़े से हाॅल में गीता-अख्तर ने अपनी बिटिया शेरू के पहले जन्मदिन की पार्टी रखी थी. सुस्वाद भोजन की महक भूख जगा रही थी, परंतु केक कटने का इंतजार तो करना ही था. केक कटा, गाना गाया गया, चिमकी भोंपू बरसे, गुब्बारे फूटे. कितनी खुश थी शीला. शेरू को सीने से चिपकाए गर्व से इठला रही थी शीला. सबसे कह रही थी कि उसने कुछ भी नही किया है, देखो तो, उसकी गीता का इंतजाम कितना परफेक्ट है। डिनर सर्व होने की घोषणा के साथ, सब टेबुल की तरफ टूट पड़े, गीता ने आग्रह किया कि मम्मी की सहेलियाँ पहले खा ले. रात्रि के दस बजने वाले थे, भूख और तृष्णा पराकाष्ठा पर थी, अतः हम सब जल्दी से बढ़ चले. शीला टेबुल के चारों ओर घूम रही थी, मानों कुछ तलाश रही हो, फिर वह एक झटके से पीछे हट गई. पिछले एक घण्टे से शेरू को शीला की गोद में देकर गीता अख्तर के दोस्तों के साथ हँसी-ठट्ठे में मस्त थी. शीला ने गीता के पास जाकर शेरू को थमाते हुए कहा, ‘‘इसे सँभालो हम घर वापस जा रहे हैं’’ और वापस जाकर अपनी कुर्सी पर बैठ गई....सारा खाना मांसाहारी था, वहाँ कुछ भी ऐसा नहीं था जो शीला, उसकी सहेलियों और गुप्ता जी के खाने लायक हो। गुप्ता जी तो प्याज लहसुन भी नहीं खाते हैं, हम सबको मालुम है, हर पार्टी में हम सभी उन लोगों के खाने का इंतजाम अलग से करती आई हैं, फिर गीता कैसे भूल गई..... शायद इसी अफसोस में शीला की आँखें नम हो गई थीं कि इतने में गीता तमतमाती हुई आई और बोली, -‘‘अब इतना नाटक करने की क्या जरूरत है, तुम्हें तो जैसे आदत पड़ गई है नाटक करने की... मालुम तो है न, कि अख्तर को घास फूस वाले खाने से कितनी चिढ़ है, हाई सोसायटी में रहना कब आयेगा..... अब ऐसा मुँह बनाकर दूसरों का मूड तो खराब न करो. कितना खुश है अख्तर आज...अपनी सहेलियों के सामने अख्तर की इज्जत का कुछ तो लिहाज करो।” इतना कहकर गीता जिस तेजी से आई थी उसकी दुगनी तेजी से वापस लौट गई, जहाँ अख्तर और उसके दोस्त खड़े हँसी-ठट्ठा कर रहे थे. गीता की हँसी के फौव्वारों ने मानों हम सभी के मुँह पर जोरदार तमाचा मारा...... सुरेखा क्षण भर रूकी, फिर बोली, ‘‘हम कुछ कहते, उसके पहले ही शीला तपाक से उठी, उसने तनिक दूर खड़े गुप्ता जी का हाथ पकड़ा, और उन्हें लगभग खींचते हुए हाॅल से बाहर निकलते समय हम लोगों से माफी माँगी और आँखों से ओझल हो गई. हम सभी हतप्रत थे.......गुप्ता जी को परिस्थिति का आभास भी नहीं था, यह उनके चेहरे के आश्चर्य से साफ झलक रहा था. आज तक गुप्ता जी अपनी सबसे बड़ी कमजोरी--शीला की खुशी -- के लिए झुकते आए थे, आज मानों शीला ने उनका स्वाभिमान उन्हें वापस लौटा दिया था.’’ सुरेखा चुप हो गई. सभी चुप हो गई. आज की किटी पार्टी में शीला का इंतजार करना अब बेमानी था. ‘हाई-टी’ सर्व हो चुकी थी. बेयरा दो बार आकर सूचना दे चुका था. अब उठना जरूरी हो गया था. सभी सहेलियाँ भारी मन लिये उठी, और अपनी-अपनी प्लेटें परोसने लगीं। ----------------------------------------

Monday 6 February 2017

बसंत - ऋतु

बसंत - ऋतु एक सूरज ने कम्बल सरकाया, हवा हुई रूखी-रूखी सिकुड़े दुबके पंख-पखेरू , हर्षित बोले चीं चीं चीं, भाल-क्षितिज पर बसंत राज की, हुई है दस्तक, पुलकित हैं खग भरे उड़ान लम्बी नभ तक , धानी पीली चूनर ओढ़े, खेतों की दुल्हन डोले, रूप गर्विता अल्हड़ा, राग रंग रस घोले, मदमाती, मुस्काती,हौले-हौले करती स्वागत बसंत ऋतु का मुख पर झीनी चादर ओढ़े .. दो पर मैं कैसे करूँ बसंत का स्वागत मन मेरा बोले…. कल की तरह नहीं हूँ खुश मैं, कल जैसा उत्साह नहीं है, पंख कैसे फैलाऊँ मैं सोचो, उड़ने की इजाजत नहीं है, घात लगाये बैठे हैं बहेलिये चहकने की हिम्मत नहीं है ….. ‘’दामिनी’’ की कराह सुनकर, लगता जैसे…… बसंत मनाने की चाह नहीं है. सुधा गोयल 'नवीन'

Sunday 5 February 2017

चार-कन्या --तसलीमा नसरीन---समीक्षा --

समीक्षा -- चार-कन्या --तसलीमा नसरीन पुस्तक मेले में घूमते हुए जब मेरी दृष्टि बांग्लादेशी कथाकार तसलीमा नसरीन के उपन्यास 'चार-कन्या' के हिन्दी अनुवाद पर पड़ी तब मैं स्वयं को न रोक सकी और झटपट खरीद लिया। अपने देश से निर्वासित, अति विवादित लेखिका के कम चर्चित उपन्यास को एक बार पढ़ना शुरू किया तो आद्योपांत पढ़ती ही चली गई। परम्परागत-रूढ़िवादी परिवारों में पली-बढ़ी लड़कियों के कन्धों पर सारी नैतिकता, सारी मान-मर्यादाओं को लाद दिया जाता है। सारे परिवार को खुश रखना, पति की आज्ञा का अक्षरशः पालन करना, अपनी इच्छाओं-आशाओं, महत्वाकांक्षाओं को ताक पर रखकर मूक कठपुतली की तरह हँसते हुए नाचने वाली को स्त्री आदर्श और 'अच्छी' बहु-बेटी दर्ज़ा देने वाले भूल जाते हैं कि नारी कोई काठ की बनी नहीं है। उसके सीने में भी एक दिल धड़कता है। उसकी भी सोच है, अरमान है। वह सिर्फ शरीर या मांस का लोथड़ा नहीं है। 'लज्जा' जैसी चर्चित कृति की लेखिका तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास 'चार-कन्या स्त्री-विमर्श की कई खिड़कियां खोलता है, जिससे आती बयार से पाठक अछूता नहीं रह सकता। यमुना, नूपुर, शीला और झूमर चार बहनों की कहानी को लेखिका ने चार अध्यायों में बाँटा है-- दूसरा पक्ष, निमंत्रण, प्रतिशोध और भँवरे जाकर कहना। दूसरा पक्ष पत्रात्मक शैली में है। ब्रह्मपल्ली मैमनसिंह से नूपुर अपनी दीदी यमुना को बुबू का संबोधन देकर पत्र लिखती है। बातों ही बातों में जीवन की बड़ी-बड़ी सच्चाइयां उजागर हो जाती है। यमुना में अपने अधिकार-बोध की तीव्र जागरुकता है। उसे काफी कुछ भुगतना पड़ता है। समाज के उलटे-सीधे नियम उसे तोड़ कर रख देते हैं। स्त्री हमेशा शक के कटघरे में क्यों खड़ी कर दी जाती है? कोई भी रिश्ता स्वार्थ-रहित क्यों नहीं हो सकता? हमेशा स्त्री से ही बलिदान की आशा क्यों की जाती है? उसके काम को प्राथमिकता कब दी जायेगी? क्या हर बार किसी मुकाम पर पहुंचने के लिए स्त्री को रिश्तों के दलदल से होकर गुज़रना पड़ेगा? इन उत्तर खोजने के लिए लेखिका ने स्त्री-मन की गहराइयों में है। लेखिका की संवेदनशीलता/भावुकता की पराकाष्ठा देखकर आश्चर्य है कि जिसने स्वयं न भोगा हो, वह इतनी अंतरंग कोमल-कठोर भावनायें इतनी सहजता से कैसे व्यक्त कर सकता है सकता है। तसलीमा जी भले ही शरीर की डॉक्टर रहीं हों, परंतु मन की गहराइयों में उतर कर अछूते पहलुओं जिस अधिकार और विश्वास से उनकी लेखनी चली है, उसका कोई सानी नहीं है। नारी का उत्पीड़न कोई नयी बात नहीं है। निर्भया हो या शीला, नारी हमेशा ठगी जाती रही। सच्चे प्रेम की अभिलाषिनी शीला के सपनों का महल ताश के पत्तों के घर सा ढह जाता है जब उसका प्रेमी ही सौदागर निकलता है। निमंत्रण के बहाने शीला के साथ जो दुर्व्यवहार होता है वह छोटी-छोटी घटनायें लेखिका के शब्द-कौशल और शब्द-प्रवाह की संजीवनी से जीवंत हो उठी हैं। तसलीमा जी कहती हैं, "मैं ईश्वर में विश्वास नहीं करती, न ही धर्म, झूठ, अंधश्रद्धा, राष्ट्रवाद, हिंसा में। मैं मानवता, अधिकार, आज़ादी, प्रेम, सद्भावना में विश्वास करती हूँ।" ऐसा धर्म जो आज़ादी नहीं दे सकता, प्रेम का गला घोंट देता हो, अंध-श्रद्धा और हिंसा में विश्वास करता हो, तसलीमा जी को स्वीकार नहीं। प्रेम ईश्वर का वरदान है, और नारी ईश्वर की श्रेष्ठतम रचना। नारी कोमल हो सकती है पर कमज़ोर नहीं। वह वसुधा सामान सहनशील तो है, पर सीमा पार कर आजमाने की कोशिश की तो प्रतिशोध की ज्वाला से ऐसे जलाती है कि जलने वाला उफ़ भी नहीं कर पाता। झूमर ने हारुन से बदला भी ले लिया और अपने सतीत्व पर आँच भी न आने दी। स्त्री-मन की गहराइयों में उतर कर लेखिका ने उसके अवसाद,पीड़ा-दुखः, स्वाभिमान, आत्मविश्वास, प्रेम, समर्पण सभी संवेगों को दुलराया, पुचकारा और सहलाया है। परिस्थितियां चाहे जितनी विकट हों, सारी दुनिया के साथ-साथ चाहे माँ-बाप भी विपरीत हो जाएँ, मानसिक-शारीरिक अत्याचार सहने पड़े, तब भी तसलीमा जी की नायिका हार नहीं मानती। भँवरे जाकर कहना में हीरा (नूपुर) अपनी नारकीय शादी-शुदा ज़िंदगी से बगावत करती है, अश्लील-अनर्गल इलज़ाम को अनदेखा कर भाग जाती है, मनजू चाचा और पापड़ी की मदद से एक अदद छोटी सी नौकरी और घर पाने में सफल हो जाती है। फिर उसे कैसर के रूप में अपनी चाहत और परम आनंद भी मिल जाता है। सुधा गोयल ‘नवीन’ जमशेदपुर 09334040697

Friday 12 August 2016

एक हास्य व्यंग्य रचना " अफसोस है!! "

एक हास्य व्यंग्य रचना अफसोस है!! अफसोस कई प्रकार के होते हैं। अपनी गल्तियों पर अफसोस, दूसरे की नादानी पर अफसोस, फेल हो जाने का अफसोस, मंजिल न मिलने का अफसोस. कोई गिर गया, पैर टूट गया, एक्सीडेण्ट हो गया या मर गया........... इत्यादि। सूची इतनी लम्बी है और समय बहुत कम। मैं शीघ्रताशीघ्र मुख्य मुद्दे पर आ जाना चाहती हूँ। अफसोस का अर्थ होता है- दुखः होना। दुखः एक ऐसा स्थायी भाव है जिसकी प्रतिक्रिया एकान्त-प्रियता, पीड़ा, आँसू, अवसाद और निराशा होती है। दुखः की चरमस्थिति में व्यक्ति अंतर्मुखी हो जाता है। उसका किसी से बात करने का मन ही नहीं करता है। दूसरों द्वारा समझाई जाने वाली दार्शनिक बातों से तो उसे मितली सी आने लगती है। कहते हैं कि दुखः बाँटने से कम होता है, लेकिन यह बात शत-प्रतिशत खरी नहीं है। कभी-कभी दुखः बाँटने के उद्देश्य से आने वाले मेहमान की मंशा उस दुखः की चर्चा करके तुलनात्मक अध्ययन करने की होती है, कि उसका दुःख ज्यादा है कि सामने वाले का। यदि सामने वाले के दुःख की तीव्रता अधिक हुई तो प्रत्यक्ष में तो वह प्रलाप के साथ आँसू भी बहा सकता है, परन्तु मन ही मन उस परमपिता परमेश्वर को धन्यवाद दे रहा होता है जिसने उसके ऊपर अपनी कृपा दृष्टि बनाए रखी हैं। दिल के किसी कोने में उसे अपने सत्कर्मों पर गर्व भी हो रहा होता है, वह सोचने लगता है, ’’ अब झेलो बच्चू.....किसी की भी पीठ में छूरा भौंकने से बाज न आते थे....... अब अपने पर पड़ी है तो रोने के लिए कन्धा ढूंढ रहे हो....” मेरे एक पड़ोसी, आत्मीय, व मित्र हैं........(सुविधा के लिए उनका नाम ‘‘ख’’बाबू रख देते हैं।) जिनका सबसे प्रिय पास-टाइम है लोगों के घर जाना........... अफसोस करने। मित्र, पड़ोसी, प्रियजन के अतिरिक्त रेल के डिब्बे में मिले किसी अपरिचित के दुःख का भी यदि उन्हें आभास मिल गया तो पत्नी से कहेंगे, ’’भागवान तैयार हो जा... फलां के घर अफसोस करने जाना है...... बहुत दिन से तू घर से निकली भी नहीं है..... चल लौटते में चप्पल भी खरीद लीजो......’’ आज की व्यस्त दिनचर्या में किसी के पास इतना समय नहीं है कि दोस्तों को चाय पर बुलाए और गपशप करके समय बर्बाद करे, लेकिन तबियत खराब होने पर वही व्यक्ति अफसोस करने आए साथियों की खूब आवभगत करता है, चाय पिलवाता है, और आग्रह से कहता है, ‘‘ धन्यवाद भइया फिर आइएगा।’’ हमारे ‘ख’ बाबू को ऐसे ही दोस्तो की तलाश रहती है। पूरे शहर का चक्कर लगाते रहते हैं कि आज किसके घर आदर-सत्कार से चाय पी जा सकती है, वह भी बिना किसी फिरौती के। एक बार तो बस हद ही हो गई। ’ख‘ बाबू के पड़ोसी मिश्रा जी के समधी के साले की देर रात रोड एक्सीडेण्ट में अचानक मृत्यु हो गई। मिश्रा जी के घर पर भी मातम छाया हुआ था। सुबह से ही लोग-बाग अफसोस प्रकट करने आ-जा रहे थे। मिश्राइन ने घर के बैठकखाने में सफेद चादर बिछाकर आगन्तुकों के स्वागत का पूरा इन्तजाम कर दिया था। हाथ जोड़कर स्वयं भी आ बिराजीं थी, यह बात अलग है कि अपने समधी के साले से वे कभी नहीं मिली थीं, यहाँ तक कि उन्हें उसका नाम भी नहीं पता था, लेकिन आने जाने वालों के सामने बाल्टी-भर आँसू बहाकर उसकी तारीफों के कसीदे काढ़ने में कोई कोर कसर बाकी न रखी थी उन्होंने। “आपको याद है न भाईसाहब...... उस लड़के ने जब यूनिवर्सिटी में टाॅप किया था तब हमारे समधियों ने घर-घर मिठाई बाँटी थी..... स्वीमिंग और टेनिस खेल का तो चैंपियन था....... एक से एक मालदार घरों से सुन्दर-सुन्दर लड़कियों के रिश्ते आ रहे थे.......हाय री किस्मत! विधाता को कुछ और ही मंजूर था।‘‘ अपने हाव-भाव, स्वरों के उतार-चढ़ाव, व भंगिमाओं से मिश्राइन आगन्तुकों की भावनाओं को उद्वेलित करने में पूर्णतः सफल हो रहीं थीं। यदि आने और जाने वाले के बीच में थोड़ा सा एकान्त अन्तराल मिल जाता तो मिश्राइन रसोई में जाकर मुँह में कुछ डाल लेने के साथ समधियों के बड़बोलेपन, दिखावा, और घमंड का नतीजा भोगने का श्राप देकर वापस आकर मोर्चा सभाँल लेती और फिर शुरू हो जाता वही प्रलाप व आँसू का सिलसिला। ’ख‘ बाबू की व्यस्तता सुबह से ही शुरू हो गई थी। आने वालों को घर के अन्दर जाने का रास्ता दिखाने से लेकर किसी को पानी पिलाना तो किसी को बाथरूम का रास्ता दिखा रहे थे। पत्नी से घर पर कह आए थे कि खाना न बनाए, समघियों का मामला है, खाना तो मिश्रा के घर से ही जाएगा उनके घर............ तो अफसोस करने उन्हीं के घर चले चलेंगे दोनों। मिश्रा के समधी उनके भी तो समधी हुए, न गए तो कितना बुरा मानेंगे। फिर अगले तीन दिनों तक ’ख‘ बाबू के चेहरे पर शिकन बनी रही। घर के जरूरी काम जैसे दूध, ब्रेड, राशन भी उन्होंने तीसरे दिन के हवन के बाद ही लाना ठीक समझा। ’ख‘ बाबू की पत्नी भी काफी सुकून महसूस कर रहीं थी। ’ख‘ बाबू दिन भर घर से बाहर मिश्रा जी के घर ड्यूटी दे रहे थे, जिससे घर में शान्ति थी, न खिचखिच न पिचपिच, दूसरे उन्हें खाना भी नहीं बनाना पड़ रहा था। मिश्राइन मानती ही न थीं। ’ख‘ बाबू उनको भावनात्मक सहारा जो दिए हुए थे। साथ ही खाने का टोकरा पैक कराकर मिश्रा की गाड़ी में समधियों के घर ले जाने का दुरूह जिम्मा भी ’ख‘ बाबू ने अपने सिर ले रखा था। अच्छी बात यह हुई कि मिश्रा के समधी ’ख‘ बाबू से अत्यधिक प्रभावित व एहसानमन्द दिखाई दिए। ’ख‘ बाबू का दिल भी बल्लियों उछला। सोचने लगे अफसोस करने जाने के अनेकानेक फायदों में से एक सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि एक भरोसेमन्द, पद-प्रतिष्ठा वाले, सज्जन इंसान उनके दोस्त, और उनके कद्रदान बन गए। अब यदाकदा उनके घर भी जाना आना लगा रहेगा और पत्नी के साथ उनके घूमने की समस्या का भी हल निकल जाएगा। मेरे सुधी पाठकों जरा ध्यान से सोचिए कहीं सांत्वना देने या अफसोस करने के बहाने कोई ’ख‘ बाबू आपकी भावनाओं से मजा लेने या अपना उल्लू सीधा करने तो नहीं आए हैं। सुधा गोयल ‘नवीन’ *****************************************

Sunday 17 April 2016

शर्मनाक फैसला

शर्मनाक फैसला

फैसला हुआ,
रेपिस्ट को पति का दर्जा दे दो।
एक पत्थर से दो शिकार कर लो।
सिन्दूर और संतान,
एक साथ,
झोली में लपक लो,
बोलने वालों की बोली,
गंदे इशारे,
छुपी हँसी को,
लाल जोड़े की चकाचौंध से मूक कर दो।
कर लो बेटी ऐसा कर लो  …
बाबा की मूँछ तनी की तनी रह पायेगी,
माँ शर्म की तलैया में नहीं,
पैसों की नदी में नहाएगी,
बहन-भाई-नाते-रिश्तेदार,
सभी को कुछ न कुछ मिल ही जाएगा।
सच चाहे जो हो, पर……
इज्जत पर आँच न आएगी  ....
बेशर्मी की इंतहा ही तो है,
कहते हो कि उसे लाइसेंस दे दो,
कभी भी, कहीं भी, कुछ भी करने का।
शादी से पहले जो रेप है,
क्रूरता, निर्लज्जता, पशुता,
या वासना है,
क्या वही
शादी कर लेने भर से,
प्यार, समर्पण, विश्वास और
पूजा में तदबील हो जाएगा।
नहीं.... कभी नहीं....
यह तो ह्त्या है, नृशंस ह्त्या।
कोमल भावनाओं की,
पवित्र बंधन के मर्यादा की,
नारी अस्मिता की,
सम्पूर्ण अस्तित्व की।
आह! कैसे तुम्हें यह मंज़ूर है।
तुम इसे  बगावत कहो
या मेरी ढिढाई  ,
काँटों का ताज पहनने की ज़िद,
या अंधे कुएं में छलांग लगाने की
मंशा  ....
पर मुझे अस्वीकार है, अस्वीकार है, अस्वीकार है  ………………
आपका यह फैसला।।

सुधा गोयल “नवीन”